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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 17
    ऋषिः - मातृनामा देवता - मातृनामा अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - सप्तपदा जगती सूक्तम् - गर्भदोषनिवारण सूक्त
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    उ॑द्ध॒र्षिणं॒ मुनि॑केशं ज॒म्भय॑न्तं मरी॒मृशम्। उ॒पेष॑न्तमुदु॒म्बलं॑ तु॒ण्डेल॑मु॒त शालु॑डम्। प॒दा प्र वि॑ध्य॒ पार्ष्ण्या॑ स्था॒लीं गौरि॑व स्पन्द॒ना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽह॒र्षिण॑म् । मुनि॑ऽकेशम् । ज॒म्भय॑न्तम् । म॒री॒मृ॒शम् । उ॒प॒ऽएष॑न्तम् । उ॒दु॒म्बल॑म् । तु॒ण्डेल॑म् । उ॒त । शालु॑डम् । प॒दा । प्र । वि॒ध्य॒ । पार्ष्ण्या॑ । स्था॒लीम् । गौ:ऽइ॑व । स्प॒न्द॒ना ॥६.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्धर्षिणं मुनिकेशं जम्भयन्तं मरीमृशम्। उपेषन्तमुदुम्बलं तुण्डेलमुत शालुडम्। पदा प्र विध्य पार्ष्ण्या स्थालीं गौरिव स्पन्दना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽहर्षिणम् । मुनिऽकेशम् । जम्भयन्तम् । मरीमृशम् । उपऽएषन्तम् । उदुम्बलम् । तुण्डेलम् । उत । शालुडम् । पदा । प्र । विध्य । पार्ष्ण्या । स्थालीम् । गौ:ऽइव । स्पन्दना ॥६.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    गर्भ की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे राजन् !] (उद्धर्षिणम्) अति झूठ बोलनेवाले, (मुनिकेशम्) मुनियों के क्लेश देनेवाले, (जम्भयन्तम्) नाश करनेवाले, (मरीमृशम्) बरबस हाथ डालनेवाले, (उपेषन्तम्।) अधिक आने-जानेवाले, (उदुम्बलम्) मार-पीट का सेवन करनेवाले, (तुण्डेलम्) तोड़-फोड़ के करनेवाले, (उत) और (शालुडम्) घमण्डी को, (प्र विध्य) छेद डाल, (इव) जैसे (स्पन्दना) कूदनेवाली (गौः) गाय (पदा) लात से और (पार्ष्ण्या) एड़ी से (स्थालीम्) हाँडी को ॥१७॥

    भावार्थ

    राजा शिष्टों की रक्षा करके दुष्टों को सर्वथा दण्ड देता रहे ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(उद्धर्षिणम्) उत्+हृषु अलीके मिथ्याकरणे-णिनि। अतिमिथ्यावादिनम् (मुनिकेशम्) मनेरुच्च। उ० ४।१२३। मन ज्ञाने-इन्, अस्य उकारः। क्लिशेरन् लो लोपश्च। उ० ५।३३। क्लिशू विबाधने-अन्, ललोपः। मुनीनां मननशीलानां विदुषां क्लेशकम् (जम्भयन्तम्) जभि नाशने-शतृ। नाशयन्तम् (मरीमृशम्) मृश स्पर्शे यङ्लुकि-अच्। रीगृदुपधस्य च। पा० ७।१।९०। इति रीक्। अत्यन्तस्पर्शकम् (उपेषन्तम्) जॄविशिभ्यां झच्। उ० १२६। उप अधिके+इष गतौ−झच्। एङि पररूपम्। पा० ६।१।९४। अधिकमेषन्तं गतिशीलम् (उदुम्बलम्) पॄभिदिव्यधि०। उ० १।२३। उड संहतौ संहनने, सौत्रो धातुः-कु। संज्ञायां भृतॄवृ०। पा० ३।२।४६। वृञ् वरणे-खच्, मुम् च। डस्य दः वस्य बः, रस्य लः। उडुंवरम्। संहननस्वीकर्तारम् (तुण्डेलम्) तुडि दारणे हिंसने च-अच्+इल प्रेरणे-क। हिंसाप्रेरकम् (उत) अपि च (शालुडम्) असेरुरन्। उ० १।४२। शाल कत्थने-उरन्, रस्य डः। आत्मश्लाघिनम् (पदा) पादेन (प्र) प्रकर्षेण (विध्य) ताडय (पार्ष्ण्या) अ० २।३३।५। गुल्फस्याधोभागेन (स्थालीम्) स्थाचतिमृजेरालज्०। उ० १।११६। ष्ठा गतिनिवृत्तौ-आलच्, गौरादित्वाद् ङीष्। पात्रम् (गौः) (इव) यथा (स्पन्दना) बहुलमन्यत्रापि। उ० २।७८। स्पदि किञ्चिच्चलने-युच्, टाप्। चलनशीला ॥

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    विषय

    पदा प्रविध्य

    पदार्थ

    १. (उद्धर्षिणम्) = अत्यधिक कामी-मिथ्या व्यवहारवाले [हषु अलीके], (मुनिकेशम्) = मुनियों के समान जटाओं को बढ़ाए हुए-ढोंगी, (जम्भयन्तम्) = हिंसन करते हुए, (मरीमृषम्) = बार-बार गुह्याङ्गों को स्पर्श करनेवाले (उपेषन्तम्) = [उप+ईष] अधिक आने-जानेवाले, (उदुम्बलम्) = अत्यधिक भोगी या मारनेवाले (तुण्डेलम) = बन्दर के समान आगे बढ़े हुए मुखवाले (उत) = और (शालुडम्) = घमण्डी पुरुष को हे स्त्रि! तू इसप्रकार (पदा प्रविध्य) = पाँवों से ठोकर मार, (इव) = जैसेकि (स्पन्दना गौ:) = कूदनेवाली गौ (पाष्ण्या) = ऐड़ी से (स्थालीम्) = दूध दुहे जानेवाली हाँडी को आहत करती है।

    भावार्थ

    यदि कोई पुरुष कामासक्ति के कारण ढोंगी-सा बना हुआ अपने पुरुषत्व के घमण्ड में स्त्री के साथ अनुचित सम्पर्क करना चाहता है तो स्त्री उसे पादाहत करके उसकी प्रार्थना को ठुकरा दे।

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    भाषार्थ

    (उद्धर्षिणम्) अति धृष्ट, (मुनिकेशम्) प्रवञ्चन के निमित्त मुनिवत् केशधारी (जम्भयन्तम्) हिंसाशील, (मरीमृशम्) पुनः पुनः [संभोगार्थ स्त्रियों से] परामर्श करने वाले (उपेषन्तम्) उन की समीपता चाहने वाले, (उदुम्बलम्) उग्र बल प्रयोगकारी बलात्कारी (तुण्डेलम्) मुख को बहु प्रेरित करने वाले अर्थात् बहुत बकवास करने वाले (शालुढम्) तथा अपराध कर के निज संवरण करने वाले, छिप जाने वाले को (पदा) पैरों द्वारा (प्रविध्य) ठुकरा कर फैंक दे (इव) जैसे कि (स्पन्दना) उछलने-कूदने वाली (गौः) गौ (पार्ष्ण्या) अपने पिछले पैर द्वारा (स्थालीम्) दूध दोहने के पात्र को ठुकरा कर फैंक देती है।

    टिप्पणी

    [उपेषन्तम्= उप + इषु इच्छायाम् (तुदादिः)। तुण्डेलम्= तुण्ड (मुख) + इल प्रेरणे (चुरादिः)। (शालुढम् = शल संवरणे (भ्वादिः) संवरणम् = Hiding covering (आप्टे)। अथवा शलम् संवरणं वहतीति। शल् + वह (ऊठ्)]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Foetus Protection

    Meaning

    Control and check the movement of the pretender, long haired thug of piety, the violent, the fondler, the loiterer, the trouble maker, the saboteur, and the boaster, throw them off their track as a restive cow kicks off the milkman’s pot of milk.

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    Translation

    Coming with erect member, the hermit-haired, vile, the fondler, creeping near (with lust), violent, snouty, and the evil-minded - him may you hit with your sole and heel, as a kicking cow hits her milking-pot.

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    Translation

    O physician ! kick out the disease-germs which are very trouble-some, which have hair-like monk, which cause drowsiness, which attack frequently, which move fast, which are more infectious, which have large mouths and which are very active, like the hasty cow which kicks with its foot and heel the milking pan.

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    Translation

    Just as a hasty cow kick over with foot and heel the milk-pan, so do thou O woman trample under thy foot and heel, a lascivious person, an impostor who wears long hair like a sage, a violent man, one who touches his private parts again and again, a frequent visitor a debauchee, a snout fellow, and a rascal.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(उद्धर्षिणम्) उत्+हृषु अलीके मिथ्याकरणे-णिनि। अतिमिथ्यावादिनम् (मुनिकेशम्) मनेरुच्च। उ० ४।१२३। मन ज्ञाने-इन्, अस्य उकारः। क्लिशेरन् लो लोपश्च। उ० ५।३३। क्लिशू विबाधने-अन्, ललोपः। मुनीनां मननशीलानां विदुषां क्लेशकम् (जम्भयन्तम्) जभि नाशने-शतृ। नाशयन्तम् (मरीमृशम्) मृश स्पर्शे यङ्लुकि-अच्। रीगृदुपधस्य च। पा० ७।१।९०। इति रीक्। अत्यन्तस्पर्शकम् (उपेषन्तम्) जॄविशिभ्यां झच्। उ० १२६। उप अधिके+इष गतौ−झच्। एङि पररूपम्। पा० ६।१।९४। अधिकमेषन्तं गतिशीलम् (उदुम्बलम्) पॄभिदिव्यधि०। उ० १।२३। उड संहतौ संहनने, सौत्रो धातुः-कु। संज्ञायां भृतॄवृ०। पा० ३।२।४६। वृञ् वरणे-खच्, मुम् च। डस्य दः वस्य बः, रस्य लः। उडुंवरम्। संहननस्वीकर्तारम् (तुण्डेलम्) तुडि दारणे हिंसने च-अच्+इल प्रेरणे-क। हिंसाप्रेरकम् (उत) अपि च (शालुडम्) असेरुरन्। उ० १।४२। शाल कत्थने-उरन्, रस्य डः। आत्मश्लाघिनम् (पदा) पादेन (प्र) प्रकर्षेण (विध्य) ताडय (पार्ष्ण्या) अ० २।३३।५। गुल्फस्याधोभागेन (स्थालीम्) स्थाचतिमृजेरालज्०। उ० १।११६। ष्ठा गतिनिवृत्तौ-आलच्, गौरादित्वाद् ङीष्। पात्रम् (गौः) (इव) यथा (स्पन्दना) बहुलमन्यत्रापि। उ० २।७८। स्पदि किञ्चिच्चलने-युच्, टाप्। चलनशीला ॥

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