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अथर्ववेद > काण्ड 16 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 6/ मन्त्र 11
    सूक्त - उषा,दुःस्वप्ननासन देवता - त्रिपदा यवमध्या गायत्री, आर्ची अनुष्टुप् छन्दः - यम सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त

    तद॒मुष्मा॑ अग्नेदे॒वाः परा॑ वहन्तु॒ वघ्रि॒र्यथास॑द्विथु॒रो न सा॒धुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । अ॒मुष्मै॑ । अ॒ग्ने॒ । दे॒वा: । परा॑ । व॒ह॒न्तु॒ । वध्रि॑:। यथा॑ । अस॑त् । विथु॑र: । न । सा॒धु: ॥६.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदमुष्मा अग्नेदेवाः परा वहन्तु वघ्रिर्यथासद्विथुरो न साधुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । अमुष्मै । अग्ने । देवा: । परा । वहन्तु । वध्रि:। यथा । असत् । विथुर: । न । साधु: ॥६.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 6; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    (तत्) इस [सब दुःख] को (अमुष्मै) उस [कुपथ्यसेवी] के लिये, (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! (देवाः) [तेरे] दिव्य नियम (परा वहन्तु) पहुँचावें, (यथा) जिस से (न साधुः) वह असाधुपुरुष (वध्रिः) निर्वीर्य और (विथुरः) व्याकुल (असत्) हो जावे ॥११॥

    भावार्थ - जो मनुष्य कुपथ्यसेवीहोवे, वह ईश्वरनियम के अनुसार दुष्ट कर्मों की अधिकता से श्रेष्ठ फल कभी नपावे, किन्तु दरिद्रता आदि महाक्लेशों में पड़कर घोर नरक भोगे ॥१०, ११॥

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