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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    तप॑सा॒ येअ॑नाधृ॒ष्यास्तप॑सा॒ ये स्वर्य॒युः। तपो॒ ये च॑क्रि॒रे मह॒स्तांश्चि॑दे॒वापि॑गच्छतात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तप॑सा। ये । अ॒ना॒धृ॒ष्या: । तप॑सा । ये । स्व᳡: । य॒यु: । तप॑: । ये । च॒क्रि॒रे । मह॑: । तान् । चि॒त् । ए॒व । अपि॑ । ग॒च्छ॒ता॒त् ॥२.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तपसा येअनाधृष्यास्तपसा ये स्वर्ययुः। तपो ये चक्रिरे महस्तांश्चिदेवापिगच्छतात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तपसा। ये । अनाधृष्या: । तपसा । ये । स्व: । ययु: । तप: । ये । चक्रिरे । मह: । तान् । चित् । एव । अपि । गच्छतात् ॥२.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 16

    पदार्थ -
    (ये) जो [विद्वान्] (तपसा) तप [ब्रह्मचर्यसेवन और वेदाध्ययन] से (अनाधृष्याः) नहीं दबनेवाले हैं और (ये) जिन्होंने (तपसा) तप से (स्वः) स्वर्ग [आनन्द पद] (ययुः) पाया है। और (ये)जिन्होंने (तपः) तप [ब्रह्मचर्यसेवन और वेदाध्ययन] को (महः) अपना महत्त्व (चक्रिरे) बनाया है, (तान्) उन [महात्माओं] को (चित्) सत्कार से (एव) ही (अपि)अवश्य (गच्छतात्) तू प्राप्त हो ॥१६॥

    भावार्थ - जो महर्षि ब्रह्मचर्यसेवन और वेदाध्ययन को अपना महत्त्व समझ कर आनन्द पाते हैं, मनुष्य उन से शिक्षालेकर ब्रह्मचर्यसेवन और वेदाध्ययन से महान् होकर सुखी होवें ॥१६॥

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