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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 20
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    अ॑संबा॒धेपृ॑थि॒व्या उ॒रौ लो॒के नि धी॑यस्व। स्व॒धा याश्च॑कृ॒षे जीव॒न्तास्ते॑ सन्तुमधु॒श्चुतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स॒म्ऽबा॒धे । पृ॒थि॒व्या: । उ॒रौ । लो॒के । नि । धी॒य॒स्व॒ । स्व॒धा: । या: । च॒कृ॒षे । जीव॑न् । ता: । ते॒ । स॒न्तु॒ । म॒धु॒ऽश्चुत॑: ॥२.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असंबाधेपृथिव्या उरौ लोके नि धीयस्व। स्वधा याश्चकृषे जीवन्तास्ते सन्तुमधुश्चुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असम्ऽबाधे । पृथिव्या: । उरौ । लोके । नि । धीयस्व । स्वधा: । या: । चकृषे । जीवन् । ता: । ते । सन्तु । मधुऽश्चुत: ॥२.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 20

    पदार्थ -
    [हे पुरुष !] (पृथिव्याः) पृथिवी के (असंबाधे) बाधारहित, (उरौ) विस्तीर्ण (लोके) स्थान में (नि) दृढ़ता से (धीयस्व) तू ठहराया गया हो। (याः) जिन (स्वधाः) आत्मधारणशक्तियों को (जीवन्) जीवते हुए (चकृषे) तूने किया है, (ताः) वे [सब शक्तियाँ] (ते) तेरे लिये (मधुश्चुतः) ज्ञान की बरसानेवाली (सन्तु) होवें ॥२०॥

    भावार्थ - जो मनुष्य विघ्नों कोहटाकर दृढ़ता से पृथिवी पर श्रेष्ठ पदार्थ खोजते जाते हैं, वे आत्मविश्वासी सदासुख पाते हैं ॥२०॥

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