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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 13
    सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६

    वृसा॑कपायि॒ रेव॑ति॒ सुपु॑त्र॒ आदु॒ सुस्नु॑षे। घस॑त्त॒ इन्द्र॑ उ॒क्षणः॑ प्रि॒यं का॑चित्क॒रं ह॒विर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑कपायि । रेव॑ति । सुऽपु॑त्रे । आ‍त् । ऊं॒ इति॑ । सुऽस्नुषे॑ ॥ घस॑त् । ते॒ । इन्द्र॑ । उ॒क्षण॑: । प्र‍ि॒यम् । का॒चि॒त्ऽक॒रम् । ह॒वि: । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृसाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे। घसत्त इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषाकपायि । रेवति । सुऽपुत्रे । आ‍त् । ऊं इति । सुऽस्नुषे ॥ घसत् । ते । इन्द्र । उक्षण: । प्र‍ियम् । काचित्ऽकरम् । हवि: । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 13

    पदार्थ -
    (वृषाकपायि) हे वृषाकपायी ! [वृषाकपि, बलवान्, चेष्टा करानेवाले जीवात्मा की विभूति] (रेवति) हे धनवाली ! (सुपुत्रे) हे वीर पुत्रों की करनेवाली ! (सुस्नुषे) हे बहुत सुख बरसानेवाली ! (आत् उ) लगातार ही (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (ते) तेरे (उक्षणः) बढ़ती करनेवाले पदार्थों को (घसत्) खावे, वह (प्रियम्) प्यारा (काचित्-करम्) सुख का सब ओर से एकत्र करनेवाला (हविः) हवि [म० १२। घृत, जल आदि पदार्थ] हैं, [क्योंकि] (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१३॥

    भावार्थ - मनुष्य आत्मबल को अपनी विभूति में संयुक्त करके संसार के सब पदार्थों से उपकार लेकर आनन्द पावे ॥१३॥

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