Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 17
    सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६

    न सेशे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते। सेदी॑शे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा क्थ्या॒ कपृ॒द्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । स: । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रो॒म॒शम् । नि॒ऽसेदुष॑: । विऽजृम्भ॑ते ॥ स: । इत् । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रम्ब॑ते । अ॒न्त॒रा । स॒क्थ्यो॑ । कपृ॑त् । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते। सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा क्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । स: । ईशे । यस्य । रोमशम् । निऽसेदुष: । विऽजृम्भते ॥ स: । इत् । ईशे । यस्य । रम्बते । अन्तरा । सक्थ्यो । कपृत् । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 17

    पदार्थ -
    (सः) वह पुरुष (न ईशे) ऐश्वर्यवान् नहीं होता, (यस्य निषेदुषः) जिस बैठे हुए [आलसी] का (रोमशम्) रोमवाला मस्तक (विजृम्भते) जँभाई लेता है, (सः इत्) वही पुरुष (ईशे) ऐश्वर्यवान् होता है, (यस्य) जिसका (कपृत्) शिर पालनेवाला कपाल (सक्थ्या अन्तरा) दोनों जङ्घाओं के बीच [ध्यान में] (रम्बते) नीचे लटकता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (श्विस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१७॥

    भावार्थ - जो मनुष्य आलस्य से शिर झुकाकर ओंघने लगते हैं, उनको विद्या, सुवर्ण और राज्य आदि ऐश्वर्य नहीं मिलता, ऐश्वर्य उनको मिलता है, जो शिर को झुकाकर अपना आपा सोचते हुए इन्द्र बनते हैं ॥१७॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top