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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 136

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 13
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - भुरिगार्ष्युष्णिक् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    व॒शा द॒ग्धामि॑माङ्गु॒रिं प्रसृ॑जतो॒ग्रतं॑ परे। म॒हान्वै भ॒द्रो यभ॒ माम॑द्ध्यौद॒नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वशा । द॒ग्धाम्ऽइ॒म । अङ्गुरिम् । प्रसृ॑जत । उ॒ग्रत॑म् । परे ॥ म॒हान् । वै । भ॒द्र: । यभ॒ । माम् । अ॑द्धि । औद॒नम् ॥१३६.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वशा दग्धामिमाङ्गुरिं प्रसृजतोग्रतं परे। महान्वै भद्रो यभ मामद्ध्यौदनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वशा । दग्धाम्ऽइम । अङ्गुरिम् । प्रसृजत । उग्रतम् । परे ॥ महान् । वै । भद्र: । यभ । माम् । अद्धि । औदनम् ॥१३६.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 13

    पदार्थ -
    [हे विद्वानो !] (वशा) वन्ध्या [निष्फल] (उग्रतम्) उग्रता [प्रचण्ड नीति] को (दग्धाम्) जली हुई, (अङ्गुरिम् इम्) अङ्गुरी के समान (परे) दूर (प्रसृजत) सर्वथा छोड़ो। (महान्) महान् पुरुष (वै) ही (भद्रः) मङ्गलदाता है, (यम) हे न्यायकारी ! (माम्) मुझको (औदनम्) भोजन (अद्धि) तू खिला ॥१३॥

    भावार्थ - जैसे साँप आदि के विष से जले हुए अङ्गुली आदि अङ्ग को शरीर की रक्षा के लिये शीघ्र काटकर फैंक देते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग निष्फल प्रचण्ड नीति को छोड़कर प्रजा को सुख देवें ॥१३॥

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