Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 136

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 6
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    म॑हान॒ग्न्युलूखलमति॒क्राम॑न्त्यब्रवीत्। यथा॒ तव॑ वनस्पते॒ निर॑घ्नन्ति॒ तथै॑वेति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हा॒न्‌ । अ॒ग्नी इति॑ । उ॑लूखलम् । अतिक्राम॑न्ति । अब्रवीत् ॥ यथा॒ । तव॑ । वनस्पते॒ । निर॑घ॒न्ति॒ । तथा॑ । एवति॑ ॥१३६.६॥।


    स्वर रहित मन्त्र

    महानग्न्युलूखलमतिक्रामन्त्यब्रवीत्। यथा तव वनस्पते निरघ्नन्ति तथैवेति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महान्‌ । अग्नी इति । उलूखलम् । अतिक्रामन्ति । अब्रवीत् ॥ यथा । तव । वनस्पते । निरघन्ति । तथा । एवति ॥१३६.६॥।

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (महान्) महान् पुरुष (अग्नी) दोनों अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] से (उलूखलम्) ओखली को (अतिक्रामन्ति) लाँघता है और (अब्रवीत्) कहता है−(वनस्पते) हे वनस्पति ! [काठ के पात्र] (यथा) जैसे (तव) तुझमें (निरघ्नन्ति) [लोग] कूटते हैं, (तथा) वैसे ही (एवति) ज्ञान के विषय में [होवे] ॥६॥

    भावार्थ - जैसे ओखली में कूटकर सार पदार्थ लेते हैं, वैसे ही मनुष्य परिश्रम करके ज्ञान प्राप्त करें ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top