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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 136

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 8
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    म॑हान॒ग्न्युप॑ ब्रूते भ्र॒ष्टोऽथाप्य॑भूभुवः। यथा॑ वयो॒ विदाह्य॑ स्व॒र्गे न॒मवद॑ह्यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हा॒न् । अ॒ग्नी इति॑ । उप॑ । ब्रू॒ते॒ । भ्र॒ष्ट: । अथ॑ । अपि। अ॑भूवुव: ॥ यथा॑ । वय॒: । वि॑दाह्य॑ । स्व॒र्गे । न॒म् । अवद॑ह्यते॒ ॥१३६.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महानग्न्युप ब्रूते भ्रष्टोऽथाप्यभूभुवः। यथा वयो विदाह्य स्वर्गे नमवदह्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महान् । अग्नी इति । उप । ब्रूते । भ्रष्ट: । अथ । अपि। अभूवुव: ॥ यथा । वय: । विदाह्य । स्वर्गे । नम् । अवदह्यते ॥१३६.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (महान्) महान्, (भ्रष्टः) परिपक्व, (अथ अपि) और भी (अभूभुवः) अशुद्धि का शोधनेवाला पुरुष (अग्नी) दोनों अग्नियों [आत्मिक और सामाजिक बलों] को (उप) पाकर (ब्रूते) कहता है−(यथा) जैसे (वयः) जीवन को (विदाह्य) विविध प्रकार तपाकर (स्वर्गे) स्वर्ग में [सुख विशेष में] (नम्) बन्धन को (अवदह्यते) [विद्वान्] भस्म कर देता है, [वैसे ही मनुष्य करे] ॥८॥

    भावार्थ - मनुष्य शुद्ध चित्त से बल बढ़ाकर विद्वानों के समान ब्रह्मचर्य आदि तप करके दुःखों से मुक्त होवे ॥८॥

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