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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 136

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 136/ मन्त्र 2
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    यदा॑ स्थू॒लेन॒ पस॑साणौ मु॒ष्का उपा॑वधीत्। विष्व॑ञ्चा व॒स्या वर्ध॑तः॒ सिक॑तास्वेव॒ गर्द॑भौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदा॑ । स्थू॒लेन॒ । पय॑सा । अणो । मु॒ष्कौ । उप॑ । अ॒व॒धी॒त् ॥ विष्व॑ञ्चा । व॒स्या । वर्धत॒: । सिक॑तासु । ए॒व । गर्द॑भौ ॥१३६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदा स्थूलेन पससाणौ मुष्का उपावधीत्। विष्वञ्चा वस्या वर्धतः सिकतास्वेव गर्दभौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदा । स्थूलेन । पयसा । अणो । मुष्कौ । उप । अवधीत् ॥ विष्वञ्चा । वस्या । वर्धत: । सिकतासु । एव । गर्दभौ ॥१३६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 136; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (यदा) जब (स्थूलेन) बड़े (पससा) राज्य प्रबन्ध के साथ (अणौ) सूक्ष्म न्याय के बीच (मुष्कौ) दोनों चोरों [स्त्री और पुरुष चोरों वा राति और दिन के चोरों] को (उप अवधीत्) वह [राजा] मार डालता है। (विष्वञ्चा) सब ओर पूजनीय (वस्या) अति श्रेष्ठ दोनों [स्त्री और पुरुष], (सिकतासु) रेतवाले देशों में (गर्दभौ एव) दो श्वेत कमलों के समान, (वर्धतः) बढ़ते हैं ॥२॥

    भावार्थ - जब राजा सूक्ष्म विचार के साथ सब दुष्ट चोरों को मिटा देता है, तभी श्रेष्ठ गुणवान् स्त्री-पुरुष बढ़ते हैं, जैसे बालू के स्थानों में श्वेत कमल बढ़ता है ॥२॥

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