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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१६

    सं गोभि॑रङ्गिर॒सो नक्ष॑माणो॒ भग॑ इ॒वेद॑र्य॒मणं॑ निनाय। जने॑ मि॒त्रो न दम्प॑ती अनक्ति॒ बृह॑स्पते वा॒जया॒शूँरि॑वा॒जौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । गोभि॑: । आ॒ङ्गि॒र॒स: । नक्ष॑माण: । भग॑:ऽइव । इत् । अ॒र्य॒मण॑म् । नि॒ना॒य॒ ॥ जने॑ । मि॒त्र: । न । दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । अ॒न॒क्ति॒ । बृह॑स्पते । वा॒जय॑ । आ॒शून्ऽइ॑व । आ॒जौ ॥१६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं गोभिरङ्गिरसो नक्षमाणो भग इवेदर्यमणं निनाय। जने मित्रो न दम्पती अनक्ति बृहस्पते वाजयाशूँरिवाजौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । गोभि: । आङ्गिरस: । नक्षमाण: । भग:ऽइव । इत् । अर्यमणम् । निनाय ॥ जने । मित्र: । न । दम्पती इति दम्ऽपती । अनक्ति । बृहस्पते । वाजय । आशून्ऽइव । आजौ ॥१६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (आङ्गिरसः) विज्ञानवाला पुरुष, (भगः इव) ऐश्वर्यवान् के समान (अर्यमणम्) श्रेष्ठों के मान करनेवाले जन को (इत्) ही (नक्षमाणः) पाता हुआ (गोभिः) वाणियों से (सम्) यथावत् (निनाय) लाया है। (जने) मनुष्यों में (मित्रः न) मित्र के समान वह (दम्पती) दोनों स्त्री-पुरुष को (अनक्ति) शोभायमान करता है, (बृहस्पते) हे बृहस्पतिः ! [वेदवाणी के रक्षक] (आजौ) सङ्ग्राम में (अशून् इव) घोड़ों के समान (वाजय) [हमें] वेगवाला कर ॥२॥

    भावार्थ - जैसे विज्ञानी पुरुष विद्वानों को पाकर गृहस्थियों को गुणी बनाते आये हैं, और जैसे संग्राम वा घुड़दौड़ के लिये घोड़े शीघ्रगामी होते हैं, वैसे ही मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग से धर्म में शीघ्रकारी होवें ॥२॥

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