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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 8
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१६

    अश्नापि॑नद्धं॒ मधु॒ पर्य॑पश्य॒न्मत्स्यं॒ न दी॒न उ॒दनि॑ क्षि॒यन्त॑म्। निष्टज्ज॑भार चम॒सं न वृ॒क्षाद्बृह॒स्पति॑र्विर॒वेणा॑ वि॒कृत्य॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्ना॑ । अपि॑ऽनद्धम् । मधु॑ । परि॑ । अ॒प॒श्य॒त । मत्स्य॑म् । न । दी॒ने । उ॒द॑नि । क्षि॒यन्त॑म् ॥ नि: । तत् । ज॒भा॒र॒ । च॒म॒सम् । न । वृ॒क्षात् । बृह॒स्पति॑: । वि॒ऽर॒वेण॑ । वि॒ऽकृत्य॑ ॥१६.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्नापिनद्धं मधु पर्यपश्यन्मत्स्यं न दीन उदनि क्षियन्तम्। निष्टज्जभार चमसं न वृक्षाद्बृहस्पतिर्विरवेणा विकृत्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्ना । अपिऽनद्धम् । मधु । परि । अपश्यत । मत्स्यम् । न । दीने । उदनि । क्षियन्तम् ॥ नि: । तत् । जभार । चमसम् । न । वृक्षात् । बृहस्पति: । विऽरवेण । विऽकृत्य ॥१६.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी वेदवाणी के रक्षक महाविद्वान्] ने (अश्ना) फैले हुए [अज्ञान] से (अपिनद्धम्) ढके हुए (मधु) ज्ञान को, (दीने) थोड़े (उदनि) जल में (क्षियन्तम्) रहती हुई (मत्स्यम् न) मछली के समान, (परि) सब ओर से (अपश्यत्) देखा, और (वृक्षात्) वृक्ष से (चमसम् न) अन्न के समान, (तत्) उस [ज्ञान] को (विरवेण) विशेष ध्वनि के साथ (विकृत्य) हल-चल करके (निः जभार) बाहिर लाया ॥८॥

    भावार्थ - विद्वान् पुरुष जब संसार में अज्ञान के कारण से ज्ञान के फैलाव में ऐसी रोक देखे, जैसे मछली थोड़े जल में नहीं चल-फिर सकती है, वह पुरुष विशेष प्रयत्न करके ज्ञान का विस्तार करे, जैसे वृक्ष से अन्न अर्थात् फल लेकर उपकार करते हैं ॥८॥

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