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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 14
    सूक्त - मातृनामा देवता - मातृनामा अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - गर्भदोषनिवारण सूक्त

    ये पूर्वे॑ व॒ध्वो॒ यन्ति॒ हस्ते॒ शृङ्गा॑णि॒ बिभ्र॑तः। आ॑पाके॒स्थाः प्र॑हा॒सिन॑ स्त॒म्बे ये कु॒र्वते॒ ज्योति॒स्तानि॒तो ना॑शयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । पूर्वे॑ । व॒ध्व᳡: । यन्ति॑ । हस्ते॑ । शृङ्गा॑णि । बिभ्र॑त: । आ॒पा॒के॒ऽस्था: । प्र॒ऽहा॒सिन॑: । स्त॒म्बे । ये । कु॒र्वते॑ । ज्योति॑: । तान् । इ॒त: । ना॒श॒या॒म॒सि॒ ॥६.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये पूर्वे वध्वो यन्ति हस्ते शृङ्गाणि बिभ्रतः। आपाकेस्थाः प्रहासिन स्तम्बे ये कुर्वते ज्योतिस्तानितो नाशयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । पूर्वे । वध्व: । यन्ति । हस्ते । शृङ्गाणि । बिभ्रत: । आपाकेऽस्था: । प्रऽहासिन: । स्तम्बे । ये । कुर्वते । ज्योति: । तान् । इत: । नाशयामसि ॥६.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 14

    पदार्थ -
    (ये) जो [कीड़े] (हस्ते) हाथ में (शृङ्गाणि) हिंसाकर्मों को (बिभ्रतः) धारण करते हुए (वध्वः) वधू के (पूर्वे) सन्मुख (यन्ति) चलते हैं। (ये) जो [कीड़े] (आपाकेष्ठाः) पाकशाला वा कुम्हार के आवाँ में बैठनेवाले, (प्रहासिनः) ठट्टा मारते हुए [जैसे] (स्तम्बे) बैठने के स्थान में (ज्योतिः) ज्वाला [जलन, चमक वा पीड़ा] (कुर्वते) करते हैं, (तान्) उन [कीड़ों] को (इतः) यहाँ से (नाशयामसि) हम नष्ट करते हैं ॥१४॥

    भावार्थ - घरों, पाकशालाओं और आवाँओं में कूड़ा-कर्कट एकत्र हो कर उष्णता के कारण रोगजनक कीड़े उत्पन्न होते हैं, मनुष्य ऐसे स्थानों को शुद्ध रक्खें ॥१४॥

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