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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 17
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - शाला छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - शाला सूक्त

    तृणै॒रावृ॑ता पल॒दान्वसा॑ना॒ रात्री॑व॒ शाला॒ जग॑तो नि॒वेश॑नी। मि॒ता पृ॑थि॒व्यां ति॑ष्ठसि ह॒स्तिनी॑व प॒द्वती॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तृणै॑: । आऽवृ॑ता । प॒ल॒दान् । वसा॑ना । रात्री॑ऽइव । शाला॑ । जग॑त: । न‍ि॒ऽवेश॑नी । मि॒ता । पृ॒थि॒व्याम् । ति॒ष्ठ॒सि॒। ह॒स्तिनी॑ऽइव । प॒त्ऽवती॑ ॥३.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तृणैरावृता पलदान्वसाना रात्रीव शाला जगतो निवेशनी। मिता पृथिव्यां तिष्ठसि हस्तिनीव पद्वती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तृणै: । आऽवृता । पलदान् । वसाना । रात्रीऽइव । शाला । जगत: । न‍िऽवेशनी । मिता । पृथिव्याम् । तिष्ठसि। हस्तिनीऽइव । पत्ऽवती ॥३.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 17

    पदार्थ -
    (तृणैः) तृण आदि से (आवृता) छाई हुई, (पलदान्) पल [अर्थात् सुवर्ण आदि की तोल और विघटिका मुहूर्त आदि] देनेवाले [यन्त्रों] को (वसाना) पहिने हुए (शाला) शाला तू (जगतः) संसार की (निवेशनी) सुख प्रवेश करनेवाली (रात्री इव) रात्रि के समान [होकर] (पद्वती) पैरोंवाली [चारों पैरों पर दृढ़ खड़ी हुई] (हस्तिनी इव) हथिनी के समान (पृथिव्याम्) उचित भूमि पर (मिता) बनाई हुई (तिष्ठसि) (स्थित) है ॥१७॥

    भावार्थ - मनुष्य शाला को सुदृढ़ बनाकर अनेक कला-कौशल आदि के यन्त्रों से उपयोगी करे ॥१७॥

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