ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 169/ मन्त्र 2
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
अयु॑ज्रन्त इन्द्र वि॒श्वकृ॑ष्टीर्विदा॒नासो॑ नि॒ष्षिधो॑ मर्त्य॒त्रा। म॒रुतां॑ पृत्सु॒तिर्हास॑माना॒ स्व॑र्मीळ्हस्य प्र॒धन॑स्य सा॒तौ ॥
स्वर सहित पद पाठअयु॑ज्रन् । ते । इ॒न्द्र॒ । वि॒श्वऽकृ॑ष्टीः । वि॒दा॒नासः॑ । निः॒ऽसिधः॑ । म॒र्त्य॒ऽत्रा । म॒रुता॑म् । पृ॒त्सु॒तिः । हास॑माना । स्वः॑ऽमीळ्हस्य । प्र॒ऽधन॑स्य । सा॒तौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयुज्रन्त इन्द्र विश्वकृष्टीर्विदानासो निष्षिधो मर्त्यत्रा। मरुतां पृत्सुतिर्हासमाना स्वर्मीळ्हस्य प्रधनस्य सातौ ॥
स्वर रहित पद पाठअयुज्रन्। ते। इन्द्र। विश्वऽकृष्टीः। विदानासः। निःऽसिधः। मर्त्यऽत्रा। मरुताम्। पृत्सुतिः। हासमाना। स्वःऽमीळ्हस्य। प्रऽधनस्य। सातौ ॥ १.१६९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 169; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र ये निःसिधो मर्त्यत्रा विदानासः स्वर्मीढस्य प्रधनस्य सातौ विश्वकृष्टिरयुज्रंस्ते या मरुतां हासमाना पृत्सुतिस्तां प्राप्नुवन्तु ॥ २ ॥
पदार्थः
(अयुज्रन्) युञ्जन्ति (ते) (इन्द्र) सुखप्रद (विश्वकृष्टीः) सर्वान् मनुष्यान् (विदानासः) विद्वांसः सन्तः (निःसिधः) अधर्मं प्रतिषेधन्तः (मर्त्यत्रा) मर्त्येषु (मरुताम्) मनुष्याणाम् (पृत्सुतिः) वीरसेना (हासमाना) आनन्दमयी (स्वर्मीढस्य) सुखैः सेचकस्य (प्रधनस्य) प्रकृष्टस्य धनस्य (सातौ) संभागे ॥ २ ॥
भावार्थः
ये पूर्वं ब्रह्मचर्येण विद्यामधीत्याप्तानां सङ्गेनाखिलां शिक्षां प्राप्य धार्मिका जायन्ते ते विश्वस्य सुखप्रदा भवन्ति ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) सुख के देनेहारे विद्वान् ! जो (निष्षिधः) अधर्म का निषेध करनेहारे (मर्त्यत्रा) मनुष्यों में (विदानासः) विद्वान् होते हुए (स्वर्मीढस्य) सुखों से सींचनेहारे (प्रधनस्य) उत्तम धन के (सातौ) अच्छे प्रकार भाग में (विश्वकृष्टीः) सब मनुष्यों को (अयुज्रन्) युक्त करते हैं (ते) वे जो (मरुताम्) मनुष्यों की (हासमाना) आनन्दमयी (पृत्सुतिः) वीरसेना है, उसको प्राप्त होवें ॥ २ ॥
भावार्थ
जो पहिले ब्रह्मचर्य से विद्या को पढ़कर धर्मात्मा शास्त्रज्ञ विद्वानों के सङ्ग से समस्त शिक्षा को पाकर धार्मिक होते हैं, वे संसार को सुख देनेवाले होते हैं ॥ २ ॥
विषय
कर्म से 'वासना-निरोध तथा उत्कृष्ट धन प्राप्ति'
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (मर्त्यत्रा) - मनुष्यों में (ते) = वे प्राणसाधक पुरुष (विश्वकृष्टी:) = श्रमसाध्य कृषि आदि निर्माणात्मक सब कर्मों को [कृष् ति=कृष्टि=कृषि] (अयुज्रन्) = अपने साथ संयुक्त करते हैं। इस प्रकार उत्तम कर्मों में लगे हुए ये (विदानासः) = ज्ञानी बनते हैं और (निष्षिधः) = व्यसनों का अपने से निषेध करते हैं, अपने जीवन में व्यसनों का प्रवेश नहीं होने देते । २. (मरुताम्) = इन प्राणसाधक पुरुषों की (पृत्सुतिः) = [पृङ् व्यायामे, षुञ् अभिषवे] यह श्रम के कर्मों द्वारा उत्पादन-क्रिया (हासमाना) = दिन-प्रतिदिन विकसित होती चलती है। ये अधिकाधिक श्रमशील होकर निर्माण करने में लगते हैं। यह 'पृत्सुति' इनके लिए (स्वर्मीळ्हस्य) = सुखों के सेचन करनेवाले (प्र-धनस्य) = प्रकृष्ट धनों की (सातौ) = प्राप्ति का निमित्त बनती है। श्रमशील कर्मों में लगे रहने से जहाँ ये वासनाओं से बचे रहते हैं, वहाँ सुखप्रद उत्तम धन को प्राप्त करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - श्रमसाध्य उत्तम कर्मों में लगे रहने से मनुष्य (क) वासनाओं को रोक पाता है, (ख) प्रकृष्ट धन को प्राप्त करता है। इसलिए ज्ञानी पुरुषों का यही मार्ग है। इस प्रकार वे वासनानिरोध से 'निःश्रेयस' को तथा उत्कृष्ट धन से 'अभ्युदय' को सिद्ध करते हैं ।
विषय
उत्तम दानशीलता ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! विद्वन् ! ( मर्त्यत्रा ) मनुष्यों के बीच में ( विदानासः ) विद्वान् लोग ( निष्षिधः ) बुरे मार्गों और बुरे आचरणों का निषेध करते हुए ( ते ) तेरे ( विश्वकृष्टीः ) समस्त मनुष्य प्रजाओं को ( अयुज्रन् ) उत्तम कार्य में प्रेरित करें। क्योंकि ( स्वर्मीढस्य ) सुखों को वर्षाने वाले (प्रधनस्य) उत्तम उत्तम धन के (सातौ ) सर्वत्र विभाग कर देने में ( मरुतां ) विद्वान् पुरुषों की ( पृत्सुतिः ) सर्व साधारण मनुष्यों के प्रति जो प्रेरणा और दान शीलता होती है वह सदा ( हासमाना ) आनन्द से युक्त सबको प्रसन्न करने वाली होती है । वायु पक्ष में—( मर्त्यत्रा ) मरणधर्मा प्राणियों के हितार्थ ( निष्षिधः विदानासः ) मेघों को लाते हुए ( विश्वकृष्टीः अयुज्रन्त ) समस्त किसानों को खेत जुतवा देते हैं । (स्वर्मीढस्य प्रधनस्य सातौ ) सुख दायी उत्तम धन अन्नादि के विभाग कार्य में ( मरुतां ) वायु गणों को ( पृत्सुतिः ) अन्न दान सब को ( हासमाना ) आनन्द प्रद होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ३, भुरिक् पङ्क्तिः । २ पङ्क्तिः । ५, ६ स्वराट् पङक्तिः । ४ ब्राह्मयुष्णिक्। ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे प्रथम ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्या शिकून धर्मात्मा, शास्त्रज्ञ, विद्वानांच्या संगतीने संपूर्ण शिक्षण प्राप्त करतात व धार्मिक बनतात ते जगाला सुखी करणारे असतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of honour and glory, that dedicated force of yours consisting of the Maruts, intelligent, creative and war-like leaders among ordinary mortals, smiling, happy and joyful, may, we pray, join and engage entire humanity in the battle of creative production of wealth and well-being for the lord creator of paradisal bliss on earth.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O giver of happiness ! The persons who condemn all unrighteousness and are highly learned let them unite in the struggle for the acquisition of superior wealth. They bestow happiness upon men, and organize a cheerful brave army of heroes.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons give happiness to the world, having acquired knowledge through the observance of Brahmacharya. The association of absolutely truthful persons make them righteous.
Foot Notes
( पुत्सुतिः ) वीर सेना = The brave army ( सातौ ) संग्रामे = In the battle or struggle.
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