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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 169 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 169/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - ब्राह्म्युष्निक् स्वरः - ऋषभः

    त्वं तू न॑ इन्द्र॒ तं र॒यिं दा॒ ओजि॑ष्ठया॒ दक्षि॑णयेव रा॒तिम्। स्तुत॑श्च॒ यास्ते॑ च॒कन॑न्त वा॒योः स्तनं॒ न मध्व॑: पीपयन्त॒ वाजै॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । तु । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । तम् । र॒यिम् । दाः॒ । ओजि॑ष्ठया । दक्षि॑णयाऽइव । रा॒तिम् । स्तुतः॑ । च॒ । याः । ते॒ । च॒कन॑न्त । वा॒योः । स्तन॑म् । न । मध्वः॑ । पी॒प॒य॒न्त॒ । वाजैः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं तू न इन्द्र तं रयिं दा ओजिष्ठया दक्षिणयेव रातिम्। स्तुतश्च यास्ते चकनन्त वायोः स्तनं न मध्व: पीपयन्त वाजै: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। तु। नः। इन्द्र। तम्। रयिम्। दाः। ओजिष्ठया। दक्षिणयाऽइव। रातिम्। स्तुतः। च। याः। ते। चकनन्त। वायोः। स्तनम्। न। मध्वः। पीपयन्त। वाजैः ॥ १.१६९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 169; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र त्वं तु न ओजिष्ठया दक्षिणयेव रातिं तं रयिं दाः। यं ते वायोश्च यास्तुतस्ता मध्वः स्तनं न चकनन्त वाजैः पीपयन्त च ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (तु) एव (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्र) बहुप्रद (तम्) (रयिम्) दुग्धादि धनम् (दाः) देहि (ओजिष्ठया) अतिशयेन पराक्रमयुक्त्या (दक्षिणयेव) यथा दक्षिणया तथा (रातिम्) दानम् (स्तुतः) स्तुतिं कुर्वत्यः। क्विबन्तः शब्दोऽयम्। (च) (याः) (ते) त्वाम्। कर्मणि षष्ठी। (चकनन्त) कामयन्ते (वायोः) पवनम्। अत्र कर्मणि षष्ठी। (स्तनम्) दुग्धस्याधारम् (न) इव (मध्वः) मधुरस्य (पीपयन्त) पाययन्ति (वाजैः) अन्नादिभिः सह ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    यथा बहुप्रदो यजमान ऋत्विजे पुष्कलं धनं दत्वैतमलङ्करोति यथा वा पुत्रा मातुर्दुग्धं पीत्वा पुष्टा जायन्ते तथा सभाध्यक्षपरितोषेण भृत्या अलंधना भोजनादिदानेन च बलिष्ठा भवन्ति ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) बहुत पदार्थों के देनेवाले ! (त्वम्) आप (तु) तो (नः) हमारे लिये (ओजिष्ठया) अतीव बलवती (दक्षिणयेव) दक्षिणा के साथ दान जैसे दिया जाय वैसे (रातिम्) दान को तथा (तम्) उस (रयिम्) दुग्धादि धन को (दाः) दीजिये कि जिससे (ते) आपकी और (वायोः) पवन की (च) भी (याः) जो (स्तुतः) स्तुति करनेवाली हैं वे (मध्वः) मधुर उत्तम (स्तनम्) दूध के भरे हुए स्तन के (न) समान (चकनन्त) चाहती और (वाजैः) अन्नादिकों के साथ (पीपयन्त) बछरों को पिलाती हैं ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    जैसे बहुत पदार्थों को देनेवाला यजमान ऋतु-ऋतु में यज्ञादि करानेवाले पुरोहित के लिये बहुत धन देकर उसको सुशोभित करता है वा जैसे पुत्र माता का दूध पीके पुष्ट हो जाते हैं, वैसे सभाध्यक्ष के परितोष से भृत्यजन पूर्ण धनी और उनके दिये भोजनादि पदार्थों से बलवान् होते हैं ॥ ४ ॥

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    विषय

    दान व माधुर्य

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (नः) = हमें (तु) = निश्चय से (तं रयिं दाः) = वह धन दीजिए इव जैसे आप (ओजिष्ठया) = ओजस्वी बनानेवाला (दक्षिणया) = दक्षिणा के हेतु से (रातिम्) = देने योग्य धन को दिया करते हैं । वस्तुतः प्रभु धन देते इसलिए हैं कि हम उसका दान में विनियोग करें। धन मुख्य रूप में उपयोग के लिए नहीं मिलता। धन का प्रथम उद्देश्य दान और दूसरा उद्देश्य भोग होता है। इसी बात को इस रूप में कहते हैं कि हम सदा यज्ञशेष का सेवन करनेवाले बनें । २. (च याः स्तुत:) = जो स्तुति करनेवाले उपासक लोग हैं वे (ते वायो:) = तुझ वायु की गति के द्वारा सब बुराइयों का हिंसन करनेवाले की (चकनन्त) = कामना करते हैं, वे (वाजैः) = अन्नों से (स्तनं न) = जैसे दूध को उसी प्रकार [वाजैः] त्याग व ज्ञान के द्वारा (मध्वः) = माधुर्य का (पीपयन्त) = वर्धन करते हैं। आपको प्राप्त करने के लिए यह माधुर्य आवश्यक है।

    भावार्थ

    भावार्थ- उपासक धन का मुख्य विनियोग दान के रूप में करते हैं और प्रभु का स्तवन करते हुए त्याग व ज्ञान के द्वारा अपने जीवन में माधुर्य का वर्धन करते हैं। उपासक दानशील व मधुर जीवनवाला होता है ।

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    विषय

    यज्ञ-दक्षिणावत् प्रभु का समृद्धिदान ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! सूर्य के समान अन्धकारों और शत्रुओं के नाशक ! राजन् ! ( ओजिष्ठया दक्षिणया इव रातिम् ) जिस प्रकार अति बल प्रदान करने वाली दक्षिणा के साथ दान करने योग्य द्रव्य राशि को यजमान पुरोहित के हाथ सौंपता है उसी प्रकार तू भी ( ओजिष्ठया दक्षिणया ) सब से अधिक बल शालिनी ‘दक्षिणा’ अर्थात् आत्मा की कार्य करने में समर्थ बलवती शक्ति या सेना के साथ ( नः ) हम प्रजाजनों को ( रातिं ) सब ऐश्वर्य देने वाली (रयिं) राज्यलक्ष्मी ( दाः ) प्रदान कर । हे राजन् ( याः ) जो ( स्तुतः ) स्तुतिशील प्रजागण ( वायोः ) वायु के समान तीव्र वेगवान् बलवान् और ज्ञानवान् ( ते ) तुझको ( चकनन्त ) चाहती हैं ( मध्वः स्तनं न वाजैः ) क्षीर के देने वाले स्तन को जिस प्रकार अन्नों के द्वारा अधिक पुष्ट किया जाता है उसी प्रकार वे प्रजाएं भी ( वाजैः ) अपने बलों और ऐश्वर्यों से ( मध्वः ) मधुर और शत्रु को कंपाने वाले ( स्तनं ) गर्जन शील तुझ वीर को ( पीपयन्त ) खूब समृद्ध करें । ( २ ) वायु, सूर्य पक्ष में—हे ( इन्द्रः ) सूर्य या वायो ! तू हमें सर्व सुखदात्री ऐश्वर्य राशियां वायु के गुणों का वरण करने वाली प्रजाएं तुझको चाहती हैं । वे ( मध्वः स्तनं ) दूध के स्तन के समान जल के देने वाले ( वाजैः ) यज्ञों द्वारा गर्जन शील मेघ की वृद्धि करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ३, भुरिक् पङ्क्तिः । २ पङ्क्तिः । ५, ६ स्वराट् पङक्तिः । ४ ब्राह्मयुष्णिक्। ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा पुष्कळ पदार्थ देणारा यजमान निरनिराळ्या ऋतूंमध्ये यज्ञ इत्यादी करविणाऱ्या पुरोहितासाठी पुष्कळ धन देऊन त्याला सुशोभित करतो, जसे मातेचे दूध पिऊन पुत्र पुष्ट होतात, तसे सभाध्यक्षाने संतोषपूर्वक दिल्यास सेवक पूर्ण धनवान होतात व दिलेल्या भोजनाने बलवान होतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, glorious lord of wealth, give us that wealth of life as a gift with the highest generosity of heart and magnanimity of mind which is honoured by the beneficiaries, that wealth and generosity of yours and the Manats’ which all people love, and which, like the honey sweet milk of the mother’s breast, nourishes the child with food, energy and intelligence.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O INDRA (giver of much wealth)! You grant us profuse wealth of all kinds, the way the performers of Yajnas please priests with ample Dakshina (sacrificial present). Grant us the wealth which meets your approval and praise. Indeed, it multiplies your sweet glory just like the mother's milk nourishes the child well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a liberal performer of the Yajna pleases the priest by giving him Dakshina in abundance or as the children become strong and healthy by the intake of mother's milk, likewise the Head of the State grants the public servants adequate emoluments and gifts of good food etc.

    Foot Notes

    (चकनन्त ) कामयन्ते = Desire. ( वाजै:) अन्नादिभि: सह = With good food etc.

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