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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 169 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 169/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अम्य॒क्सा त॑ इन्द्र ऋ॒ष्टिर॒स्मे सने॒म्यभ्वं॑ म॒रुतो॑ जुनन्ति। अ॒ग्निश्चि॒द्धि ष्मा॑त॒से शु॑शु॒क्वानापो॒ न द्वी॒पं दध॑ति॒ प्रयां॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अम्य॑क् । सा । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । ऋ॒ष्टिः । अ॒स्मे इति॑ । सने॑मि । अभ्व॑म् । म॒रुतः॑ । जु॒न॒न्ति॒ । अ॒ग्निः । चि॒त् । हि । स्म॒ । अ॒त॒से । शु॒शु॒क्वान् आपः॑ । न । द्वी॒पम् । दध॑ति । प्रयां॑सि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अम्यक्सा त इन्द्र ऋष्टिरस्मे सनेम्यभ्वं मरुतो जुनन्ति। अग्निश्चिद्धि ष्मातसे शुशुक्वानापो न द्वीपं दधति प्रयांसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अम्यक्। सा। ते। इन्द्र। ऋष्टिः। अस्मे इति। सनेमि। अभ्वम्। मरुतः। जुनन्ति। अग्निः। चित्। हि। स्म। अतसे। शुशुक्वान् आपः। न। द्वीपम्। दधति। प्रयांसि ॥ १.१६९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 169; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र यथा मरुतः सनेम्यभ्वं जुनन्ति सा ते ऋष्टिरस्मे अम्यगस्ति। शुशुक्वानग्निश्चित्वं हि स्मापो द्वीपं न सर्वेषामनादिकारणमतसेऽतः सर्वे प्रयांसि दधति ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (अम्यक्) अमिं सरलां गतिमञ्चति गच्छति (सा) (ते) तव (इन्द्र) दुष्टविदारक (ऋष्टिः) प्राप्तिः (अस्मे) अस्मभ्यम् (सनेमि) पुराणम्। सनेमीति पुराणना०। निघं०। ३। २७। (अभ्वम्) अचाक्षुषत्वेनाप्रसिद्धं कारणम् (मरुतः) मनुष्याः (जुनन्ति) प्राप्नुवन्ति (अग्निः) पावका इव (चित्) इव (हि) खलु (स्म) (अतसे) निरन्तरं प्राप्नुषे (शुशुक्वान्) शोचकः (आपः) जलानि (न) इव (द्वीपम्) द्विधापांसि यस्मिंस्तम् (दधति) धरन्ति (प्रयांसि) कमनीयानि वस्तूनि ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यदनादिकारणं विद्वांसो जानन्ति तदितरे जना ज्ञातुं न शक्नुवन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) दुष्टों को विदारण करनेवाले ! जिससे (मरुतः) मनुष्य (सनेमि) प्राचीन और (अभ्वम्) नेत्र से प्रत्यक्ष देखने में अप्रसिद्ध उत्तम विषय को (जुनन्ति) प्राप्त होते हैं (सा) वह (ते) आपकी (ऋष्टिः) प्राप्ति (अस्मे) हमारे लिये (अम्यक्) सीधी चाल को प्राप्त होती है अर्थात् सरलता से आप हम लोगों को प्राप्त होते हैं। और (शुशुक्वान्) शुद्ध करनेवाले (अग्निः) अग्नि के समान (चित्) ही आप (हि) निश्चय के साथ (स्म) जैसे आश्चर्यवत् (आपः) जल (द्वीपम्) दो प्रकार से जिसमें जल आवें-जावें उस बड़े भारी नद को प्राप्त हों (न) वैसे सबके अनादि कारण को (अतसे) निरन्तर प्राप्त होते हैं इससे सब मनुष्य (प्रयांसि) सुन्दर मनोहर चाहने योग्य वस्तुओं को (दधति) धारण करते हैं ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिस अनादि कारण को विद्वान् जानते उसको और जन नहीं जान सकते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    सनातन महान् वेदज्ञान

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमात्मन् ! (सा) = वह (ते) = आपकी (ॠष्टिः) = गतिशीलता [ऋष्= to go], का संहार [ऋष् = to kill] तथा ज्ञान [ऋषिर्दर्शनात्] (अस्मे अम्यक्) = [to wards, near] हमें समीपता से प्राप्त हो । (मरुतः) = प्राणसाधक पुरुष (सनेमि) = उस पुराण, सनातन (अभ्वम्) = महान् वेदज्ञान को (जुनन्ति) = [जुन्- to move] अपने में प्रेरित करते हैं । वेदज्ञान शाश्वत है, महान् है। यह प्रभु का नित्य ज्ञान है और सब सत्य विद्याओं का आधार है। प्राणसाधना से हृदय पवित्र होता है और बुद्धि तीव्र होती है। इस प्रकार हम इस वेद ज्ञान को प्राप्त करने के योग्य बनते हैं । २. इस ज्ञान को प्राप्त करके यह (अतसे शुशुक्वान्) = शुष्ककाष्ठों में दीप्त होनेवाली (अग्निः चित् हि स्म) = निश्चय से अग्नि ही बनता है। जैसे अग्नि दीप्त होती है, यह दीप्त मस्तिष्कवाला बनता है। ज्ञानदीप्त होकर ये लोग उसी प्रकार (प्रयांसि दधति) = प्रयत्नों को धारण करते हैं (न) = जैसे कि (आपः) = जल (द्वीपम्) = एक द्वीप को। 'द्विर्गता आपो यस्मिन् '- इस व्युत्पत्ति से द्वीप वह होता है जिसके इधर भी जल होते हैं, उधर भी। इसी प्रकार इन ज्ञानदीप्त लोगों के इधर भी प्रयत्न होते हैं, उधर भी, अर्थात् ऐहलौकिक प्रयत्नों से ये अभ्युदय को सिद्ध करते हैं तो पारलौकिक प्रयत्नों से निःश्रेयस को ।

    भावार्थ

    भावार्थ - वेदज्ञान को प्राप्त करानेवाला 'अभ्युदय व निः श्रेयस' दोनों को सिद्ध करने के लिए यत्नशील होता है।

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    विषय

    प्रभु की अद्वितीय शासन-व्यवस्था । (४)

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! सूर्य के समान अन्धकार को दूर करने और मेघ के समान जल और ज्ञान ऐश्वर्य के देने हारे ! परमेश्वर ! ( ते ) तेरी ही ( सा ) वह अवर्णनीय ( ऋष्टिः ) प्राप्ति, प्रेरणा और शक्ति ( अम्यक् ) सर्व श्रेष्ठ और सर्वत्र व्यापक है जो ( मरुतः ) विद्वान् गण ( सनेमि ) अति पुरातन सनातन से चले आये ( अभ्वं ) अनादि सिद्ध ज्ञान का ( अस्मे ) हमें ( जुनन्ति ) उपदेश करते हैं। इसी प्रकार हे ( इन्द्र ) सूर्य ! यह तेरी ही (ऋष्टिः) देदीप्यमान शक्ति है कि ( मरुतः ) वायुगण ( सनेमि अभ्वं जुनयन्ति) पहले से संगृहीत समुद्र के जल को ले आते हैं और ला ला कर बरसाते हैं । और ( अतसे ) काष्ठ में लगा ( अग्निः चित्) अग्नि जिस प्रकार लगकर ( शुशुक्वान् ) खूब चमकता है और ( अतसे ) आकाश में ( चित् अग्निः शुशुक्वान् ) जिस प्रकार सूर्य चमका करता है उसी प्रकार ( अतसे ) व्यापक आत्मा में ( अग्निः चित् ) ज्ञानवान् पुरुष भी ( शुशुक्वान् ) शुद्धज्ञान प्रकाश से प्रकाशित हो । ( आपः द्वीपं न ) जल जिस प्रकार द्वीप को घेर लेते हैं और उसको अन्न प्रदान करते हैं उसी प्रकार ( आपः ) प्राण गण ( द्वीपं ) भीतरी और बाहर दोनों ओर से प्राणों को धारण करने वाले देह को ( प्रयांसि ) बल और अन्न प्रदान करते और पुष्ट करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ३, भुरिक् पङ्क्तिः । २ पङ्क्तिः । ५, ६ स्वराट् पङक्तिः । ४ ब्राह्मयुष्णिक्। ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या अनादि कारणाला विद्वान जाणतात, ते इतर लोक जाणू शकत नाहीत. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the fruits of that loving and generous creativity of yours, by which the Maruts create perfect joyous gifts of life from pre-existing causes, which gifts, like the blazing fire in the wood and waters in the open- ended flowing rivers and space, abide in nature, and which gifts, then, the living beings enjoy as the dearest gifts of life (by virtue of the creative dynamics of the Maruts).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The Eternal God is realized by learned only.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O INDRA (destroyer of the wicked)! The learned good mien serve you-the Eternal, Great and Invisible Cause. Let you be accessible to us. You are like the Resplendent fire. As sea water pervade from all directions, you have pervaded all. You are the first Eternal Cause of the whole creation. Therefore, all dedicate to you their most cherished objects.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The Eternal Supreme Cause (God) is know by the learned persons. He can not be known by other (ignorant) persons.

    Foot Notes

    (अम्यक्) अमि सरलां गतिम् अञ्चति गच्छति = Easy. (ॠष्टि:) प्राप्ति: = Attainment. (अभ्वम्) अचाक्षुषत्वेन अप्रसिद्धं कारणम् = Invisible, therefore not so well known cause.

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