ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 169/ मन्त्र 7
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्रति॑ घो॒राणा॒मेता॑नाम॒यासां॑ म॒रुतां॑ शृण्व आय॒तामु॑प॒ब्दिः। ये मर्त्यं॑ पृतना॒यन्त॒मूमै॑र्ऋणा॒वानं॒ न प॒तय॑न्त॒ सर्गै॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । घो॒राणा॑म् । एता॑नाम् । अ॒यासा॑म् । म॒रुता॑म् । शृ॒ण्वे॒ । आ॒ऽय॒ताम् । उ॒प॒ब्दिः । ये । मर्त्य॑म् । पृ॒त॒ना॒ऽयन्त॑म् । ऊमैः॑ । ऋ॒ण॒ऽवान॑म् । न । प॒तय॑न्त । सर्गैः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति घोराणामेतानामयासां मरुतां शृण्व आयतामुपब्दिः। ये मर्त्यं पृतनायन्तमूमैर्ऋणावानं न पतयन्त सर्गै: ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति। घोराणाम्। एतानाम्। अयासाम्। मरुताम्। शृण्वे। आऽयताम्। उपब्दिः। ये। मर्त्यम्। पृतनाऽयन्तम्। ऊमैः। ऋणऽवानम्। न। पतयन्त। सर्गैः ॥ १.१६९.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 169; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रकृतविषये शूरवीरत्वगुणानाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यथाऽहं घोराणामेतानामयासामायतां मरुतां योपब्दिरस्ति तां प्रति शृण्व ये पृतनायन्तं मर्त्यमृणावानं नोमैः सर्गैः पतयन्त तान्सेवे तथा यूयमप्याचरत ॥ ७ ॥
पदार्थः
(प्रति) वीप्सायाम् (घोराणाम्) हन्त्रीणाम् (एतानाम्) पूर्वोक्तानाम् (अयासाम्) प्राप्तानाम् (मरुताम्) वायूनामिव विदुषां विदुषीजनानां वा (शृण्वे) (आयताम्) आगच्छतामागच्छन्तीनां वा (उपब्दिः) वाक्। उपब्दिरिति वाङ्ना०। निघं० १। ११। (ये) (मर्त्यम्) मनुष्यम् (पृतनायन्तम्) आत्मनः पृतनां सेनामिच्छन्तम् (ऊमैः) रक्षणादिभिः (ऋणावानम्) ऋणयुक्तम् (न) इव (पतयन्त) पतिमिवाचरन्तु। अत्राडभावः। (सर्गैः) संसृष्टैः ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये दुष्टानां पुरुषाणां स्त्रीणां च कठोरान् शब्दान् श्रुत्वा न शोचन्ति ते शूरवीरा भवन्ति ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब प्रकृत विषय में शूरवीर होने के गुणों को कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे मैं (घोराणाम्) मारनेवाली (एतानाम्) इन पूर्वोक्त (अयासाम्) प्राप्त हुए वा (आयताम्) (मरुताम्) आते हुए पवनवत् शीघ्रकारी मनुष्य स्त्री जनों की जो (उपब्दिः) वाणी है उसको (प्रति, शृण्वे) बार-बार सुनता हूँ और (ये) जो (पृतनायन्तम्) अपने को सेना की इच्छा करते हुए (मर्त्यम्) मनुष्य को (ऋणावानम्) ऋणयुक्त को जैसे (न) वैसे (ऊमैः) रक्षणादि (सर्गैः) संसर्गों से युक्त विषयों के साथ (पतयन्त) स्वामी के समान मानें उनका सेवन करता हूँ, वैसे तुम भी आचरण करो ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो दुष्ट पुरुषों और स्त्रियों के कठोर शब्दों को सुनकर नहीं सोच करते हैं, वे शूरवीर होते हैं ॥ ७ ॥
विषय
वासनाओं के आक्रमण से रक्षण
पदार्थ
१. (घोराणाम्) = उदात्त, उत्कृष्ट अथवा रोग व वासनादि शत्रुओं के लिए भयंकर (एतानाम्) = [Shining] निर्मलता को उत्पन्न करने के कारण दीप्त, (अयासाम्) = निरन्तर गतिशील, (आयताम्) = शरीर में सर्वत्र गति करते हुए (मरुताम्) = प्राणों का (उपब्दि:) = स्तुतिवचन (प्रतिशृण्वे) = प्रतिदिन सुनाई पड़ता है। प्राणसाधक का जीवन उदात्त (घोर) बनता है, ज्ञान से दीप्त होता है। इसमें गमनशीलता होती है। यह प्राणसाधक सदा क्रियाशील होता हुआ प्रभु का स्मरण करता है । २. मरुत्=प्राण वे हैं, (ये) = जो (पृतनायन्तम्) = वासनाओं पर आक्रमण करनेवाले (मर्त्यम्) = मनुष्य को (ऊमैः) = रक्षणों के साथ (पतयन्त) = प्राप्त होते हैं। (न) = जिस प्रकार (ऋणावानम्) = ऋणी पुरुष के प्रति (सगैं:) = दृढ़ निश्चय के साथ पतयन्त जाते हैं । ऋणी से ऋण वापस लेने के लिए जैसे धनी पुरुष दृढ़ निश्चय के साथ जाता है, उसी प्रकार मरुत् (प्राण) साधना करनेवाले को रक्षण के उद्देश्य से प्राप्त होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधक पुरुष को वासनाओं के आक्रमण से बचाते हैं ।
विषय
परिव्राजकों के वायुवत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( घोराणां ) उग्र वेग से बहने वाले ( अयासां ) गति शील ( एतानाम् ) आये हुए और ( आयताम् ) सब तरफ जाने वाले ( मरुतां ) वायुओं की ( उपब्दिः ) ध्वनि सुनाई देती है और जिस प्रकार वे वायु गण ( पृतनायन्तम् मर्त्यं ) अन्न को चाहने वाले मनुष्य को (ऊमैः) पशु आदि रक्षा साधनों और ( सर्गैः ) जलों सहित ( पतयन्त ) प्राप्त होते हैं और जिस प्रकार धनी लोग ( ऊमैः सर्गैः ) रक्षाकारी पुरुष या नाना उपायों सहित (ऋणावानं प्रति पतयन्त न ) ऋण वाले पुरुष के प्रति अपने को उसके धन का भी स्वामी बतलाते हैं उसी प्रकार मैं वा हम लोग ( घोराणाम् ) उग्र, दुष्टों को भय देने वाले, ( एतानाम् ) शुक्ल वर्ण के वस्त्रों वाले, उत्तम कर्म और ज्ञान से सम्पन्न, ( अयासां ) ज्ञानवान्, ( आयताम् ) सब तरफ जाने वाले ( मरुतां ) वायु और प्राण के समान सर्वोऽपकारी उन परिव्राजकों की ( उपब्दिः ) उपदेशमयी वाणी ( प्रति शृण्वे ) बराबर सुनाई दे जो विद्वान् पुरुष ( ऊमैः ) अपने रक्षा साधनों से और ( सर्गैः ) नाना प्रकार के उपायों से ( पृतनायन्तम् मर्त्यम् ) सेना और सहायक मनुष्यों को चाहने वाले पुरुष को भी ( ऋणावानम् ) ऋणीवान् पुरुष के समान प्राप्त कर, उसे अपने वशकर ( सर्गैः ) उत्तम उपदेशों से ( पतयन्त ) उस पर आधिपत्य प्राप्त करते हैं । उसको अपने वश कर लेते हैं । (२) वीर सैनिकों के पक्ष में—वे सेना के इच्छुक शत्रु को ऋणी के समान ( पतयन्त पातयन्ति ) नाना उपायों से नीचे गिरा देते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ३, भुरिक् पङ्क्तिः । २ पङ्क्तिः । ५, ६ स्वराट् पङक्तिः । ४ ब्राह्मयुष्णिक्। ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे दुष्ट पुरुष व स्त्रियांचे कठोर वचन ऐकूनही त्याकडे लक्ष देत नाहीत, शोक करीत नाहीत ते शूरवीर असतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I hear the echoes of the roar of awful and impetuous Maruts reaching their target and returning— Maruts which, with the creation and release of fresh energy and modes of protection, exhort and accelerate the speed of humanity on way to progress like an army advancing to victory.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a brave person.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! I hear the noise of formidable and swift moving men and women. They are mighty like the winds and serve those who annihilate their wicked enemies with their protective power. Such persons march together to meet the foes. You should also act similarly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who do not budge an inch on the threats hurled by the wicked men and women are really brave.
Foot Notes
(उपब्दि:) वाक् । उपब्दिरिति वाङ्नाम ( NG. 1.11 ) ( ऊमैः ) रक्षाणादिभिः = With protective powers.
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