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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आसुरी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    आ दे॒वेषु॑वृश्चते अहु॒तम॑स्य भवति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । दे॒वेषु॑ । वृ॒श्च॒ते॒ । अ॒हु॒तम् । अ॒स्य॒ । भ॒व॒ति॒ ॥१२.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ देवेषुवृश्चते अहुतमस्य भवति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । देवेषु । वृश्चते । अहुतम् । अस्य । भवति ॥१२.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 12; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    यज्ञ करने में विद्वान् की सम्मति का उपदेश।

    पदार्थ

    वह (देवेषु) विद्वानोंके बीच (आ) सर्वथा (वृश्चते) दोषी होता है, और (अस्य) उस [गृहस्थ] का (अहुतम्)कुयज्ञ (भवति) हो जाता है ॥१०॥

    भावार्थ

    जो अयोग्य गृहस्थनीतिज्ञ वेदवेत्ता अतिथि की आज्ञा बिना मनमाना काम करने लगता है, वह अनधिकारीहोने से शुभ कार्य सिद्ध नहीं कर सकता और न लोग उसकी कुमर्यादा को मानते हैं॥८-११॥

    टिप्पणी

    १०−(आ) समन्तात् (अहुतम्) कुयज्ञः। अन्यत् पूर्ववत्-म० ६ ॥

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    विषय

    बड़ों का निरादर व गृहविनाश

    पदार्थ

    १. (अथ) = अब (यः) = जो (एवं विदुषा) = इसप्रकार ज्ञानी (व्रात्येन) = व्रती से (अनतिसृष्टः) = बिना अनुज्ञा पाये ही, उसके आतिथ्य को उपेक्षित करके (जुहोति) = यज्ञ में प्रवृत्त होता है, वह पितृयाणं पन्यां न प्रजानाति-पितृयाणमार्ग के तत्व को नहीं जानता न देवयानं प्र [जानाति]-न ही देवयानमार्ग के रहस्य को जानता है। २. (य:) = जो एवं विदुषा (व्रात्येन) = इसप्रकार ज्ञानीव्रती से (अनतिसष्ट:) = बिना अनुज्ञा प्राप्त किये हुए ही (जुहोति) = अग्निहोत्र में प्रवृत्त हो जाता है, वह (देवेषु) = देवों के विषय में (आवृश्चते) = अपने कर्त्तव्य को छिन्न करता है। (आहुतम् अस्य भवति) = इसका अग्निहोत्र किया न किया बराबर हो जाता है और (अस्मिन् लोके) = इस संसार में (अस्य आयतनम्) = इसका घर उत्तम परिपाटियों के न रहने से (नशिष्यते) = विनष्ट हो जाता है।

    भावार्थ

    अतिथि की उपेक्षा करके यज्ञ में लगे रहना भी उचित नहीं, इससे घर में बड़ों के आदर की भावना का विलोप होकर घर विनाश की ओर चला जाता है।

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    भाषार्थ

    वह (देवेषु) विद्वत्समाज में उन के सत्संग से (आ वृश्चते) पूर्णतया अपने-आप को वञ्चित कर लेता है, और (अस्य) इस का किया अग्निहोत्र (अहुतम्, भवति) न किया हो जाता है (१०):

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    विषय

    अतिथि यज्ञ।

    भावार्थ

    (अथ) और (यः) जो (एवं विदुषा व्रात्येन) इस प्रकार के व्रात्य से (अनतिसृष्टः) बिना आज्ञा प्राप्त किये ही (जुहोति) अग्निहोत्र करता है वह (न पितृयाणं पन्थां जानाति न देवयानम्) न पितृयाण के मार्ग के तत्व को जानता है और न देवयान के मार्ग को ही जानता है। वह (देवेषु आ वृश्चते) देवों, विद्वानों के प्रति भी अपराध करता है, उनको प्रसन्न करता है। (अस्य अहुतम् भवति) उसके बिना आज्ञा के हवन किया हुआ भी न हवन किये के समान है। वह निष्फल हो जाता है। और (यः) जो (एवं विदुषा व्रात्येन) इस प्रकार के विद्वान से (अनतिसृष्टः) विना आज्ञा प्राप्त किये (जुहोति) आहुति करता है (अस्य अस्मिन् लोके आयतनं न शिष्यते) उसका इस लोक में आयतन, प्रतिष्ठा भी शेष नहीं रहती।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ त्रिपदा गायत्री, २ प्राजापत्या बृहती, ३, ४ भुरिक् प्राजापत्याऽनुष्टुप् [ ४ साम्नी ], ५, ६, ९, १० आसुरी गायत्री, ८ विराड् गायत्री, ७, ११ त्रिपदे प्राजापत्ये त्रिष्टुभौ। एकादशर्चं द्वादशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    He alienates himself among the Devas, and his yajna remains unfulfilled.

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    Translation

    He is cut off from the enlightened ones; his offering is (regarded as) not duly made.

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    Translation

    Acts against the enlightened persons and the Devas of Yajna and his Yajna is not to be treated as performed.

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    Translation

    He offends against the learned. His sacrifice does not achieve fulfillment.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(आ) समन्तात् (अहुतम्) कुयज्ञः। अन्यत् पूर्ववत्-म० ६ ॥

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