अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 6
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आसुरी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
1
न दे॒वेष्वावृ॑श्चते हु॒तम॑स्य भवति ॥
स्वर सहित पद पाठन । दे॒वेषु॑ । आ । वृ॒श्च॒ते॒ । हु॒तम् । अ॒स्य॒ । भ॒व॒ति॒ ॥१२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
न देवेष्वावृश्चते हुतमस्य भवति ॥
स्वर रहित पद पाठन । देवेषु । आ । वृश्चते । हुतम् । अस्य । भवति ॥१२.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
यज्ञ करने में विद्वान् की सम्मति का उपदेश।
पदार्थ
वह (देवेषु) विद्वानोंके बीच (आ) थोड़ा भी (न वृश्चते) दोषी नहीं होता है, [तब] (अस्य) उस [गृहस्थ] का (हुतम्) यज्ञ (भवति) हो जाता है ॥६॥
भावार्थ
गृहस्थ को योग्य है किआदरपूर्वक विद्वान् मर्यादापुरुष सत्यव्रतधारी अतिथि की आज्ञा से उत्तम-उत्तमकर्म करता रहे, जिससे उसकी मर्यादा और कीर्ति संसार में स्थिर होवे ॥४-७॥
टिप्पणी
६−(न) निषेधे (देवेषु)विद्वत्सु (आ) ईषत् (वृश्चते) वृश्च्यते। दूषितो भवति (हुतम्) हवनम्। यज्ञः (भवति) सिद्ध्यति ॥
विषय
अतिथि सत्कार व गृहरक्षण
पदार्थ
१. (सः) = वह गृहस्थ (य:) = जो (एवम्) = इस गति के स्रोत प्रभु को (विदुषा) = जाननेवाले व्रात्येन व्रतीपुरुष से (अतिसृष्टः) = अनुज्ञा दिया हुआ (जुहोति) = अग्निहोत्र करता है, (प्र पितृयाणं पन्थों जानाति) = पितृयाण मार्ग को जानता है और (देवयानं प्र)[जानाति] = देवयानमार्ग को भी जानता है। बड़ों के आदेश में चलना ही पितृयाणमार्ग है और दिव्यगुणों को प्राप्त करानेवाला मार्ग ही देवयान है। घर पर आये हुए मान्य अतिथि से अनुज्ञा लेकर अग्निहोत्र आदि में प्रवृत्त होने से घर में पितयाण व देवयान मार्गों की नींव पड़ती है। २. (य:) = जो (एवं विदुषा) = गति के स्रोत प्रभु के ज्ञाता व्रात्य से (अतिसृष्टः जुहोति) = अनुज्ञा दिया हुआ अग्निहोत्र करता है, वह (देवेषु) = देवों के विषय में (न आवश्चते) = अपने कर्तव्य को क्षीण नहीं करता, अर्थात् उनके विषय में अपने कर्तव्य का पालन करता है (अस्य हुतं भवति) = इसका अग्निहोत्र ठीक सम्पन्न होता है तथा (अस्मिन् लोके) = इस जगत् में (अस्य आयतनम्) = इसका घर (परिशिष्यते) = विनाश से बचा रहता है, अर्थात् इस घर में विलास आदि की वृत्तियों उत्पन्न होकर इसके विनाश का कारण नहीं बनती।
भावार्थ
विद्वान व्रती अतिथि से अनुजा लेकर ही अग्निहोत्र आदि में प्रवत्त होने से उस अतिथि का मान बना रहता है और गृहस्थ के घर में उत्तम प्रथाएँ बनी रहती हैं जो घर को विनष्ट नहीं होने देती।
भाषार्थ
वह गृहस्थी (देवेषु) विद्वत्समाज में उन के सत्संग से अपने आप को (न, आ वृश्चते) नहीं वञ्चित करता, और (अस्य) इस गृहस्थी का (हुतम्) हवन (भवति) सम्पन्न हो जाता है, (६)
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि अग्निहोत्र के नियत काल को जानने वाला विद्वान् अतिथि, गृहस्थी के नियम में बाधा न डाल कर उसे अग्निहोत्र के करने की आज्ञा दे देता है और गृहस्थी का अग्निहोत्र सम्पन्न हो जाता है।]
विषय
अतिथि यज्ञ।
भावार्थ
(यः) जो (एवं) इस प्रकार (विदुषा व्रात्येन अतिसृष्टः जुहोति) विद्वान् प्रजापति से आज्ञा प्राप्त करके अग्निहोत्र करता है वह (न देवेषु आ वृश्चते) देवताओं, विद्वानों के प्रति कोई अपराध नहीं करता। (अस्मिन् लोके) इस लोक में (अस्य) इसका (आयतनम्) आयतन आश्रय या प्रतिष्ठा (परिशिष्यते) उसके बाद भी बनी रहती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ त्रिपदा गायत्री, २ प्राजापत्या बृहती, ३, ४ भुरिक् प्राजापत्याऽनुष्टुप् [ ४ साम्नी ], ५, ६, ९, १० आसुरी गायत्री, ८ विराड् गायत्री, ७, ११ त्रिपदे प्राजापत्ये त्रिष्टुभौ। एकादशर्चं द्वादशं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
He does not alienate himself among the Devas, his yajna is fulfilled.
Translation
He is not cut off from the enlightened ones; his offerings are (regarded as duly) made.
Translation
Does not act in Opposition of the enlightened and yajna-devas and his Yajna becomes performed.
Translation
He does not act in opposition to the learned. His sacrifice becomes successful.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(न) निषेधे (देवेषु)विद्वत्सु (आ) ईषत् (वृश्चते) वृश्च्यते। दूषितो भवति (हुतम्) हवनम्। यज्ञः (भवति) सिद्ध्यति ॥
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