अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 8
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - विराट् गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
1
अथ॒ य ए॒वंवि॒दुषा॒ व्रात्ये॒नान॑तिसृष्टो जु॒होति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअथ॑ । य: । ए॒वम् । वि॒दुषा॑ । व्रात्ये॑न । अन॑तिऽसृष्ट: । जु॒होति॑ ॥१२.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अथ य एवंविदुषा व्रात्येनानतिसृष्टो जुहोति ॥
स्वर रहित पद पाठअथ । य: । एवम् । विदुषा । व्रात्येन । अनतिऽसृष्ट: । जुहोति ॥१२.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
यज्ञ करने में विद्वान् की सम्मति का उपदेश।
पदार्थ
(अथ) और फिर (यः) जो [गृहस्थ] (एवम्) व्यापक परमात्मा को (विदुषा) जानते हुए (व्रात्येन) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] करके (अनतिसृष्टः) नहीं आज्ञा दिया हुआ (जुहोति) यज्ञ करताहै ॥८॥
भावार्थ
जो अयोग्य गृहस्थनीतिज्ञ वेदवेत्ता अतिथि की आज्ञा बिना मनमाना काम करने लगता है, वह अनधिकारीहोने से शुभ कार्य सिद्ध नहीं कर सकता और न लोग उसकी कुमर्यादा को मानते हैं॥८-११॥
टिप्पणी
८−(अथ) अपि च (अनतिसृष्टः) अनाज्ञापितः। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४ ॥
विषय
बड़ों का निरादर व गृहविनाश
पदार्थ
१. (अथ) = अब (यः) = जो (एवं विदुषा) = इसप्रकार ज्ञानी (व्रात्येन) = व्रती से (अनतिसृष्टः) = बिना अनुज्ञा पाये ही, उसके आतिथ्य को उपेक्षित करके (जुहोति) = यज्ञ में प्रवृत्त होता है, वह पितृयाणं पन्यां न प्रजानाति-पितृयाणमार्ग के तत्व को नहीं जानता न देवयानं प्र [जानाति]-न ही देवयानमार्ग के रहस्य को जानता है। २. (य:) = जो एवं विदुषा (व्रात्येन) = इसप्रकार ज्ञानीव्रती से (अनतिसष्ट:) = बिना अनुज्ञा प्राप्त किये हुए ही (जुहोति) = अग्निहोत्र में प्रवृत्त हो जाता है, वह (देवेषु) = देवों के विषय में (आवृश्चते) = अपने कर्त्तव्य को छिन्न करता है। (आहुतम् अस्य भवति) = इसका अग्निहोत्र किया न किया बराबर हो जाता है और (अस्मिन् लोके) = इस संसार में (अस्य आयतनम्) = इसका घर उत्तम परिपाटियों के न रहने से (नशिष्यते) = विनष्ट हो जाता है।
भावार्थ
अतिथि की उपेक्षा करके यज्ञ में लगे रहना भी उचित नहीं, इससे घर में बड़ों के आदर की भावना का विलोप होकर घर विनाश की ओर चला जाता है।
भाषार्थ
(अथ) और (यः) जो गृहस्थी (एवम्) इस प्रकार के (विदुषा) विद्वान् (व्रात्येन) व्रतनिष्ठ अतिथि से (अनतिसृष्टः) आज्ञा न पाया हुआ (जुहोति) अग्निहोत्र करता है, (८)
विषय
अतिथि यज्ञ।
भावार्थ
(अथ) और (यः) जो (एवं विदुषा व्रात्येन) इस प्रकार के व्रात्य से (अनतिसृष्टः) बिना आज्ञा प्राप्त किये ही (जुहोति) अग्निहोत्र करता है वह (न पितृयाणं पन्थां जानाति न देवयानम्) न पितृयाण के मार्ग के तत्व को जानता है और न देवयान के मार्ग को ही जानता है। वह (देवेषु आ वृश्चते) देवों, विद्वानों के प्रति भी अपराध करता है, उनको प्रसन्न करता है। (अस्य अहुतम् भवति) उसके बिना आज्ञा के हवन किया हुआ भी न हवन किये के समान है। वह निष्फल हो जाता है। और (यः) जो (एवं विदुषा व्रात्येन) इस प्रकार के विद्वान से (अनतिसृष्टः) विना आज्ञा प्राप्त किये (जुहोति) आहुति करता है (अस्य अस्मिन् लोके आयतनं न शिष्यते) उसका इस लोक में आयतन, प्रतिष्ठा भी शेष नहीं रहती।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ त्रिपदा गायत्री, २ प्राजापत्या बृहती, ३, ४ भुरिक् प्राजापत्याऽनुष्टुप् [ ४ साम्नी ], ५, ६, ९, १० आसुरी गायत्री, ८ विराड् गायत्री, ७, ११ त्रिपदे प्राजापत्ये त्रिष्टुभौ। एकादशर्चं द्वादशं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
And he that performs yajna but not thus permitted by the learned Vratya...
Translation
And now he, who performs a sacrifice without being permitted by such a knowledgeable vow-observing sage,
Translation
He who performs yajna instead of not being permitted by Vratya who is possessor of this knowledge.
Translation
But he who sacrifices without the permission of the Acharya who possesses this knowledge of God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(अथ) अपि च (अनतिसृष्टः) अनाज्ञापितः। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४ ॥
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