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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - भुरिक् साम्नी अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    स य ए॒वंवि॒दुषा॒ व्रात्ये॒नाति॑सृष्टो जु॒होति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । य: । ए॒वम् । वि॒दुषा॑ । व्रात्ये॑न । अति॑ऽसृष्ट: । जु॒होति॑ ॥१२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स य एवंविदुषा व्रात्येनातिसृष्टो जुहोति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । य: । एवम् । विदुषा । व्रात्येन । अतिऽसृष्ट: । जुहोति ॥१२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    यज्ञ करने में विद्वान् की सम्मति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो [गृहस्थ] (एवम्) व्यापक परमात्मा को (विदुषा) जानते हुए (व्रात्येन) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] करके (अतिसृष्टः) आज्ञा दिया हुआ (जुहोति) यज्ञ करता है, (सः) वह [गृहस्थ] ॥४॥

    भावार्थ

    गृहस्थ को योग्य है किआदरपूर्वक विद्वान् मर्यादापुरुष सत्यव्रतधारी अतिथि की आज्ञा से उत्तम-उत्तमकर्म करता रहे, जिससे उसकी मर्यादा और कीर्ति संसार में स्थिर होवे ॥४-७॥

    टिप्पणी

    ४−(सः) गृहस्थः (यः)गृहस्थः (एवम्) व्यापकं परमात्मानम् (विदुषा) जानता (व्रात्येन)सत्यव्रतधारिणाऽतिथिना (अतिसृष्टः) आज्ञापितः (जुहोति) यज्ञं करोति ॥

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    विषय

    अतिथि सत्कार व गृहरक्षण

    पदार्थ

    १. (सः) = वह गृहस्थ (य:) = जो (एवम्) = इस गति के स्रोत प्रभु को (विदुषा) = जाननेवाले व्रात्येन व्रतीपुरुष से (अतिसृष्टः) = अनुज्ञा दिया हुआ (जुहोति) = अग्निहोत्र करता है, (प्र पितृयाणं पन्थों जानाति) = पितृयाण मार्ग को जानता है और (देवयानं प्र)[जानाति] = देवयानमार्ग को भी जानता है। बड़ों के आदेश में चलना ही पितृयाणमार्ग है और दिव्यगुणों को प्राप्त करानेवाला मार्ग ही देवयान है। घर पर आये हुए मान्य अतिथि से अनुज्ञा लेकर अग्निहोत्र आदि में प्रवृत्त होने से घर में पितयाण व देवयान मार्गों की नींव पड़ती है। २. (य:) = जो (एवं विदुषा) = गति के स्रोत प्रभु के ज्ञाता व्रात्य से (अतिसृष्टः जुहोति) = अनुज्ञा दिया हुआ अग्निहोत्र करता है, वह (देवेषु) = देवों के विषय में (न आवश्चते) = अपने कर्तव्य को क्षीण नहीं करता, अर्थात् उनके विषय में अपने कर्तव्य का पालन करता है (अस्य हुतं भवति) = इसका अग्निहोत्र ठीक सम्पन्न होता है तथा (अस्मिन् लोके) = इस जगत् में (अस्य आयतनम्) = इसका घर (परिशिष्यते) = विनाश से बचा रहता है, अर्थात् इस घर में विलास आदि की वृत्तियों उत्पन्न होकर इसके विनाश का कारण नहीं बनती।

    भावार्थ

    विद्वान व्रती अतिथि से अनुजा लेकर ही अग्निहोत्र आदि में प्रवत्त होने से उस अतिथि का मान बना रहता है और गृहस्थ के घर में उत्तम प्रथाएँ बनी रहती हैं जो घर को विनष्ट नहीं होने देती।

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    भाषार्थ

    (यः) जो गृहस्थी (एवम्) इस प्रकार के (विदुषा) विद्वान् (व्रात्येन्) व्रतनिष्ट अतिथि द्वारा (अतिसृष्टः) आज्ञा पाया हुआ (जुहोति) अग्निहोत्र करता है, (४)

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    विषय

    अतिथि यज्ञ।

    भावार्थ

    (यः) जो (एवं) इस प्रकार से (विदुषा व्रात्येन अतिसृष्टः) विद्वान् व्रात्य से आज्ञा पाकर (जुहोति) अग्निहोत्र करता है (सः) वह (पितृयाणं पन्थाम्) पितृयाण मार्ग को (प्रजानाति) भली प्रकार जान लेता है और (देवयानं प्र) देवयान मार्ग के तत्व को भी जान लेता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ त्रिपदा गायत्री, २ प्राजापत्या बृहती, ३, ४ भुरिक् प्राजापत्याऽनुष्टुप् [ ४ साम्नी ], ५, ६, ९, १० आसुरी गायत्री, ८ विराड् गायत्री, ७, ११ त्रिपदे प्राजापत्ये त्रिष्टुभौ। एकादशर्चं द्वादशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    He that performs the yajna thus permitted by the learned Vratya guest ...

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    Translation

    He, whoever permitted by such a knowledgeable vowobserving sage, performs sacrifice,

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    Translation

    He who permitted by Vratya who is the Possessor of this knowledge to performs Yajna.

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    Translation

    He, who sacrifices when permitted by the Acharya who possesses this knowledge of God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(सः) गृहस्थः (यः)गृहस्थः (एवम्) व्यापकं परमात्मानम् (विदुषा) जानता (व्रात्येन)सत्यव्रतधारिणाऽतिथिना (अतिसृष्टः) आज्ञापितः (जुहोति) यज्ञं करोति ॥

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