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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - आर्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
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    वा॒युं ते॒न्तरि॑क्षवन्तमृच्छन्तु। ये मा॑घा॒यव॑ ए॒तस्या॑ दि॒शोऽभि॒दासा॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒युम्। ते। अ॒न्तरि॑क्षऽवन्तम्। ऋ॒च्छ॒न्तु॒। ये। मा॒। अ॒घ॒ऽयवः॑। ए॒तस्याः॑। दि॒शः। अ॒भि॒ऽदासा॑त् ॥१८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वायुं तेन्तरिक्षवन्तमृच्छन्तु। ये माघायव एतस्या दिशोऽभिदासात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वायुम्। ते। अन्तरिक्षऽवन्तम्। ऋच्छन्तु। ये। मा। अघऽयवः। एतस्याः। दिशः। अभिऽदासात् ॥१८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    रक्षा के प्रयत्न का उपदेश।

    पदार्थ

    (ते) वे [दुष्ट] (अन्तरिक्षवन्तम्) मध्यलोक के स्वामी (वायुम्) सर्वव्यापक परमेश्वर की (ऋच्छन्तु) सेवा करें। (ये) जो (अघायवः) बुरा चीतनेवाले (मा) मुझे (एतस्याः) इस [बीचवाली] (दिशः) दिशा से (अभिदासात्) सताया करें ॥२॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(वायुम्) सर्वव्यापकं परमात्मानम् (अन्तरिक्षवन्तम्) मध्यलोकस्य स्वामिनम् (एतस्याः) मध्यवर्तमानायाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    'मध्यमार्ग में चलना' व पापवृत्तियों का निराकरण

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (अपायव:) = अशुभ को चाहनेवाले हानिकर भाव (एतस्याः दिश:) = इस पूर्व पश्चिम के बीच की दिशा से (मा) = मुझे (अभिदासात) = उपक्षीण करना चाहें, (ते) = वे (अन्तरिक्षवन्तम्) = उत्तम हदयान्तरिक्ष को प्राप्त करानेवाले (वायुम) = निरन्तर गतिवाले प्रभु को (ऋच्छन्तु) = प्राप्त होकर नष्ट सामर्थ्य हो जाएँ। २. इस पूर्व-दक्षिण के मध्य दिग्भाग में 'वायु' नामक प्रभु, उत्तम हृदयान्तरिक्ष को लिये हुए मेरा रक्षण कर रहे हैं, जो भी अशुभ वृत्ति इधर से मुझपर आक्रमण करेगी, वह इन 'वायु' नामक प्रभु को प्राप्त होकर विनष्ट होगी। प्रभु के रक्षक होने पर यह मुझ तक पहुँचेगी ही कैसे?

    भावार्थ

    पूर्व-दक्षिण के मध्यवर्ती दिग्भाग से कोई अशुभवृत्ति मुझपर आक्रमण नहीं कर सकती। इधर से तो 'वायु' नामक प्रभु मेरा रक्षण कर रहे हैं। यह निरन्तर गतिशीलता [वायु] मुझे अशुभवृत्तियों का शिकार नहीं होने देगी।

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    भाषार्थ

    (ये) जो (अघायवः) पापेच्छुक-हत्यारे (एतस्याः दिशः) इस दिशा से (मा) मेरा (अभिदासात्) क्षय करें, (ते) वे (अन्तरिक्षवन्तम्) अन्तरिक्ष के स्वामी (वायुम्) पूर्वा-वायु के सदृश प्राणप्रद परमेश्वर [के न्यायदण्ड] को (ऋच्छन्तु) प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    [एतस्याः दिशः= सम्भवतः पूर्व-दक्षिण की अवान्तर दिशा या पूर्व दिशा।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Protection and Security

    Meaning

    To the dispensation of Vayu, life giving breath of divinity, lord of the skies, may they proceed in the course of justice who are of evil and negative nature and treat and hurt me as an enemy, from the eastern direction.

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    Translation

    To the pervading Lord with the midspace, may they go (for their destruction), who, of sinful intent invade me from this direction (middle of the south).

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    Translation

    Let those mischief-mongers who............... from this region (east)......... All-pervading God with firmament.

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    Translation

    Let the evil-intentioned enemies, assaulting us with the murderous attack from the mid-quarter i.e., south-east approach our powerful commander, who has full control over the atmosphere with his speedy striking are power, to meet their end.

    Footnote

    It can also refer to the various powers of God, protecting us from the wicked enemies» like the previous sukta.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(वायुम्) सर्वव्यापकं परमात्मानम् (अन्तरिक्षवन्तम्) मध्यलोकस्य स्वामिनम् (एतस्याः) मध्यवर्तमानायाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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