अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 7
ऋषिः - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - प्राजापत्या त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
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वि॒श्वक॑र्माणं॒ ते स॑प्तऋ॒षिव॑न्तमृच्छन्तु। ये मा॑ऽघा॒यव॒ उदी॑च्या दि॒शोऽभि॒दासा॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒श्वऽक॑र्माणम्। ते। स॒प्त॒ऋ॒षिऽव॑न्तम्। ऋ॒च्छ॒न्तु॒। ये। मा॒। अ॒घ॒ऽयवः॑। उदी॑च्याः। दि॒शः। अ॒भि॒ऽदासा॑त् ॥१८.७॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वकर्माणं ते सप्तऋषिवन्तमृच्छन्तु। ये माऽघायव उदीच्या दिशोऽभिदासात् ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वऽकर्माणम्। ते। सप्तऋषिऽवन्तम्। ऋच्छन्तु। ये। मा। अघऽयवः। उदीच्याः। दिशः। अभिऽदासात् ॥१८.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
रक्षा के प्रयत्न का उपदेश।
पदार्थ
(ते) वे [दुष्ट] (सप्तऋषिवन्तम्) सात ऋषियों [हमारे कान आँख, नाक, जिह्वा, त्वचा पाँच ज्ञानेन्द्रियों मन, बुद्धि] के स्वामी (विश्वकर्माणम्) विश्वकर्मा [सबके बनानेवाले परमेश्वर] की (ऋच्छन्तु) सेवा करें। (ये) जो (अघायवः) बुरा चीतनेवाले (मा) मुझे (उदीच्याः) उत्तर वा बायीं (दिशः) दिशा से (अभिदासात्) सताया करें ॥७॥
भावार्थ
मन्त्र १ के समान है ॥७॥
टिप्पणी
७−(विश्वकर्माणम्) सर्वस्रष्टारं परमेश्वरम् (सप्तऋषिवन्तम्) सू०१७। म०७। छन्दसीरः। पा०८।२।१५। मतुपो वः। मनोबुद्धिसहितपञ्चज्ञानेन्द्रियाणां स्वामिनम् (उदीच्याः) उत्तरस्याः वामस्थायाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
सप्त ऋषियों का प्राशस्त्य व पाप का अभाव
पदार्थ
१. (ये) = जो (अघायवः) = अशुभ को चाहनेवाले पापभाव (मा) = मुझे (उदीच्या: दिश:) = उत्तर दिशा से (अभिदासात) = उपक्षीण करते हैं, (ते) = वे (सप्तऋषिवन्तम्) = प्रशस्त सात ऋषियोंवाले-उत्तम करें, (नासिका) = छिद्रों, आँखों व मुखवाले विश्वकर्माणम्-ब्रह्माण्ड के कर्ता प्रभु को ऋच्छन्तु-प्रास होकर नष्ट हो जाएँ। २. इस उत्तरदिशा से प्रशस्त कर्ण आदि इन्द्रियों को प्रास करानेवाले विश्वकर्मा प्रभु मेरा रक्षण कर रहे हैं, इधर से पापभाव मुझतक पहुंच ही कैसे सकते हैं?
भावार्थ
मैं उत्तर दिशा में उस विश्वकर्मा प्रभु का ध्यान करता हुआ क्रियाशील बनें। प्रशस्त इन्द्रियोंवाला बनकर पापों से आक्रान्त न होऊँ।
भाषार्थ
(ये) जो (अघायवः) पापेच्छुक-हत्यारे (उदीच्याः दिशः) उत्तर दिशा से (मा) मेरा (अभिदासात्) क्षय करें, (ते) वे (सप्त ऋषिवन्तम्) सात ऋषियों के स्वामी (विश्वकर्माणम्) विश्व के कर्त्ता परमेश्वर [के न्यायदण्ड] को (ऋच्छन्तु) प्राप्त हो।
टिप्पणी
[सप्त ऋषिवन्तम्=सप्त ऋषि “६ इन्द्रियाँ और सप्तमी विद्या” (निरु० १२.४.३८)। तथा “सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे” (यजुः० ३४.५५); तथा “तदासत ऋषयः सप्त साकं ये अस्य गोपा महतो बभूवुः” (अथर्व० १०.८.९)। अभिप्राय यह है कि सात ऋषियोंवाली मानुष-प्रजा का स्वामी, जो कि उस प्रजा का भी कर्त्ता है, उसके न्यायदण्ड को पापेच्छुक-हत्यारा व्यक्ति प्राप्त हो। सप्त ऋषियोंवाले प्राणी प्रायः भूमध्यरेखा की उत्तर दिशा में रहते हैं।]
इंग्लिश (4)
Subject
Protection and Security
Meaning
To the dispensation of Vishvakarma, lord maker of the universe, who creates with the seven sages, may they proceed in the course of justice who are of negative and destructive nature and treat and hurt me as an alien, from the northern direction.
Translation
To the universal Architect with the seven-seers, may they go (for their destruction), who, of sinful intent, invade me from the northern quarter.
Translation
Let those............from north............ God whose grand performance is this universe linked with seven Rishis.
Translation
May those, mischievous enemies, who dash against us to murder us from the north or left side, meet their death-blow from our Engineers, equipped with all the means and contrivances to detect their movements from afar.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(विश्वकर्माणम्) सर्वस्रष्टारं परमेश्वरम् (सप्तऋषिवन्तम्) सू०१७। म०७। छन्दसीरः। पा०८।२।१५। मतुपो वः। मनोबुद्धिसहितपञ्चज्ञानेन्द्रियाणां स्वामिनम् (उदीच्याः) उत्तरस्याः वामस्थायाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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