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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - प्राजापत्या त्रिष्टुप् सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
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    बृह॒स्पतिं॒ ते वि॒श्वदे॑ववन्तमृच्छन्तु। ये मा॑ऽघा॒यव॑ ऊ॒र्ध्वाया॑ दि॒शोऽभि॒दासा॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॒स्पति॑म्। ते। वि॒श्वदे॑वऽवन्तम्। ऋ॒च्छ॒न्तु॒। ये। मा॒। अ॒घ॒ऽयवः॑। ऊ॒र्ध्वायाः॑। दि॒शः। अ॒भि॒ऽदासा॑त् ॥१८.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पतिं ते विश्वदेववन्तमृच्छन्तु। ये माऽघायव ऊर्ध्वाया दिशोऽभिदासात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पतिम्। ते। विश्वदेवऽवन्तम्। ऋच्छन्तु। ये। मा। अघऽयवः। ऊर्ध्वायाः। दिशः। अभिऽदासात् ॥१८.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 18; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    रक्षा के प्रयत्न का उपदेश।

    पदार्थ

    (ते) वे [दुष्ट] विश्वदेववन्तम् सब उत्तम गुण रखनेवाले (बृहस्पतिम्)। बृहस्पति [वेदवाणी के रक्षक परमात्मा] की (ऋच्छन्तु) सेवा करें। (ये) जो (अघायवः) बुरा चीतनेवाले (मा) मुझे (ऊर्ध्वायाः) ऊपरवाली (दिशः) दिशा से (अभिदासात्) सताया करें ॥१०॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान है ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(बृहस्पतिम्) बृहत्या वेदवाण्या रक्षकं परमात्मानम् (विश्वदेववन्तम्) सर्वश्रेष्ठगुणयुक्तम् (ऊर्ध्वायाः) उपरिस्थितायाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    ज्ञान व निष्पापता

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (अघायवः) = अशुभ चाहनेवाली पापवृत्तियाँ (मा) = मुझे (ऊर्ध्वायाः दिश:) = ऊर्ध्वा दिक् से (अभिदासात्) = उपक्षीण करती हैं, (ते) = वे (विश्वदेववन्तम्) = सब प्रशस्त दिव्यगुणों को प्राप्त करानेवाले (बृहस्पतिम्) = ज्ञान के स्वामी प्रभु को (ऋच्छन्तु) = प्राप्त होकर नष्ट हो जाएँ। २. इस ऊर्ध्वादिक् की ओर से 'बृहस्पति' प्रभु मेरा रक्षण कर रहे है-वे मुझे सब दिव्यगुणों को प्राप्त कराते हैं। ऐसी स्थिति में वे पापप्रवृत्तियों मेरे समीप फटक ही नहीं पाती।

    भावार्थ

    मैं ज्ञान की रुचिवाला बनूँ और इसप्रकार सब व्यसनों से अपने को बचा पाऊँ।

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    भाषार्थ

    (ये) जो (अघायवः) पापेच्छुक-हत्यारे (ऊर्ध्वायाः दिशः) ऊपर की दिशा से (मा) मेरा (अभिदासात्) क्षय करें (ते) वे (विश्वदेववन्तम्) समग्र दिव्यगुणों समग्र दिव्यपदार्थों तथा समग्र मानुषदेवों के स्वामी, और (बृहस्पतिम्) बृहती वेदवाणी के रक्षक, तथा आकाशादि महातत्त्वों के रक्षक परमेश्वर [के न्यायदण्ड] को (ऋच्छन्तु) प्राप्त करें।

    टिप्पणी

    [उपर्युक्त मन्त्रों के अनुसार अपकारी के प्रति बदले में अपकार करना धर्म तथा उच्च सदाचार के विरुद्ध है। आत्मोन्नति चाहनेवाला व्यक्ति ऐसे अपकारियों को परमेश्वरीय न्यायव्यवस्था के सुपुर्द कर आत्मोन्नति में सदा तत्पर रहे। ऊर्ध्वायाः दिशः=हवाई जहाज द्वारा आक्रमण।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Protection and Security

    Meaning

    To the dispensation of Brhaspati, lord supreme of the expansive universe, who commands all the divinities of the world, human and natural, must they proceed in the ultimate course of justice who persist in their negative and sinful nature and treat and hurt me as a slave, from the direction high above.

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    Translation

    To the Lord supreme with all the bounties of Nature,may they go (for their destruction), who, of sinful intent, invade me from the upward quarter: (zenith).

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    Translation

    Let those mischief-mongers who harass me from the region above surrender them to God who is the master of all grand world, with the Vishvedevas.

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    Translation

    Let all the mischievous machinations of the enemies to suppress us on the high levels of political diplomacy, be set at naught by coming to the knowledge of the chief councilor, accompanied by all the learned persons.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(बृहस्पतिम्) बृहत्या वेदवाण्या रक्षकं परमात्मानम् (विश्वदेववन्तम्) सर्वश्रेष्ठगुणयुक्तम् (ऊर्ध्वायाः) उपरिस्थितायाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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