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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - स्वराडार्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
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    सूर्यं॒ ते द्यावा॑पृथि॒वीव॑न्तमृच्छन्तु। ये मा॑ऽघा॒यव॑ प्र॒तीच्याः॑ दि॒शोऽभि॒दासा॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य॑म्। ते। द्यावा॑पृथि॒वीऽव॑न्तम्। ऋ॒च्छ॒न्तु॒। ये। मा॒। अ॒घ॒ऽयवः॑। प्र॒तीच्याः॑।दि॒शः। अ॒भि॒ऽदासा॑त् ॥१८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यं ते द्यावापृथिवीवन्तमृच्छन्तु। ये माऽघायव प्रतीच्याः दिशोऽभिदासात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्यम्। ते। द्यावापृथिवीऽवन्तम्। ऋच्छन्तु। ये। मा। अघऽयवः। प्रतीच्याः।दिशः। अभिऽदासात् ॥१८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 18; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    रक्षा के प्रयत्न का उपदेश।

    पदार्थ

    (ते) वे [दुष्ट] (द्यावापृथिवीवन्तम्) सूर्य और पृथिवी के स्वामी (सूर्यम्) सर्वप्रेरक परमात्मा की (ऋच्छन्तु) सेवा करें। (ये) जो (अघायवः) बुरा चीतनेवाले (मा) मुझे (प्रतीच्याः) पश्चिम वा पीछेवाली (दिशः) दिशा से (अभिदासात्) सताया करें ॥५॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान है ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(सूर्यम्) सर्वप्रेरकं परमात्मानम् (द्यावापृथिवीवन्तम्) छन्दसीरः। पा०८।२।१५। मतुपो मस्य वः। सूर्यपृथिव्योः स्वामिनम् (प्रतीच्याः) पश्चिमायाः। पृष्ठतः स्थितायाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    सूर्यसम ज्ञानज्योति में

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (अघायव:) = अशुभ को चाहनेवाले पापभाव (मा) = मुझे (प्रतीच्याः दिश:) = पश्चिम दिशा से (अभिदासात्) = उपक्षीण करना चाहते हैं, (ते) = वे (द्यावापृथिवीवन्तम्) = उत्तम मस्तिष्करूप धुलोक को तथा दृढ शरीररूप पृथिवीलोक को प्राप्त करानेवाले (सूर्यम्) = सूर्यसम ज्योतिबाले ब्रह्म को (ऋच्छन्तु) = प्राप्त होकर नष्ट हो जाएँ। २. इस पश्चिम दिशा से 'सूर्य' नामक प्रभु मेरा रक्षण कर रहे हैं। इधर से आनेवाले पापभाव सूर्य तक पहुँचते ही उस सूर्यसम दीत ज्ञानाग्नि में दग्ध हो जाते हैं। मुझतक नहीं पहुँच पाते।

    भावार्थ

    पश्चिम दिशा से कोई पापभाव मुझपर आक्रमण नहीं कर सकता। इधर से 'सूर्य' नामक प्रभु मेरा रक्षण कर रहे हैं। सूर्य के समान ज्ञानज्योति को दीस करने से सब पाप उसमें भस्म हो जाते हैं।

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    भाषार्थ

    (ये) जो (अघायवः) पापेच्छुक-हत्यारे (प्रतीच्याः दिशः) पश्चिम दिशा से (मा) मेरा (अभिदासात्) क्षय करें, (ते) वे (द्यावापृथिवीवन्तम्) द्युलोक और पृथिवीलोकसम्बन्धी (सूर्यम्) सूर्य के सदृश प्रकाशमान परमेश्वर [के न्यायदण्ड] को (ऋच्छन्तु) प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    [सूर्यम्=“तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः”॥ (यजुः० ३२.१) के अनुसार अग्नि आदित्य (सूर्य) आदि नाम परमेश्वर के भी हैं। तथा “वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णम्” (यजुः० ३१.१८) में परमेश्वर को “आदित्यवर्णम्” अर्थात् सूर्य के सदृश प्रकाशमान कहा है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Protection and Security

    Meaning

    To the dispensation of Surya, self-refugent sun, who wields the heaven and earth, may they proceed in the course of justice who are of negative and destructive nature and treat and hurt me as an enemy, from the western direction.

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    Translation

    To the Sun (God) with the heaven and earth, may they go (for their destruction), who of sinful intent, invade me from the western quarter.

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    Translation

    Let those......--- from west......... All-impelling God connected with heaven and the earth.

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    Translation

    Let the wicked enemies, who dare attack us from the west to enslave us, meet their doom at the very approach of our commander capable of burning all his foes, like the Sun with the energy from the earth and the cosmos.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(सूर्यम्) सर्वप्रेरकं परमात्मानम् (द्यावापृथिवीवन्तम्) छन्दसीरः। पा०८।२।१५। मतुपो मस्य वः। सूर्यपृथिव्योः स्वामिनम् (प्रतीच्याः) पश्चिमायाः। पृष्ठतः स्थितायाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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