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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त
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    या गृत्स्य॑स्त्रिपञ्चा॒शीः श॒तं कृ॑त्या॒कृत॑श्च॒ ये। सर्वा॑न्विनक्तु॒ तेज॑सोऽर॒सान् ज॑ङ्गि॒डस्क॑रत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याः। गृत्स्यः॑। त्रि॒ऽप॒ञ्चा॒शीः। श॒तम्। कृ॒त्या॒ऽकृतः॑। च॒। ये। सर्वा॑न्। वि॒न॒क्तु॒। तेज॑सः। अ॒र॒सान्। ज॒ङ्गि॒डः। क॒र॒त् ॥३४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या गृत्स्यस्त्रिपञ्चाशीः शतं कृत्याकृतश्च ये। सर्वान्विनक्तु तेजसोऽरसान् जङ्गिडस्करत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याः। गृत्स्यः। त्रिऽपञ्चाशीः। शतम्। कृत्याऽकृतः। च। ये। सर्वान्। विनक्तु। तेजसः। अरसान्। जङ्गिडः। करत् ॥३४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    विषय

    सबकी रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (याः) जो (त्रिपञ्चाशीः) तीन बार पचास [डेढ़ सौ अर्थात् असंख्य] (गृत्स्यः) ललचानेवाला [पीड़ाएँ] (च) और (ये) जो (शतम्) सौ [बहुत] (कृत्याकृतः) दुःख करनेवाले [रोग] हैं। (जङ्गिडः) जङ्गिड [संचार करनेवाला औषध] (सर्वान्) उन सब [रोगों] को (तेजसः) [उनके] प्रभाव से (विनक्तु) अलग करे और (अरसान्) नीरस [निष्प्रभाव] (करत्) कर देवे ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे जङ्गिड औषध अनेक रोगों को नाश करता है, वैसे ही विद्वान् जन आत्मिक और शारीरिक क्लेशों को हटावें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(याः) (गृत्स्यः) गृध्रिपण्योर्दकौ च। उ०३।६९। गृधु अभिकाङ्क्षायाम्-स प्रत्ययः, कित् धस्य दः, ङीप्। गर्धनशीलाः पीडाः (त्रिपञ्चाशीः) पूरणार्थे डट्। टित्वाद् ङीप्। त्रिवारं पञ्चाशतसंख्याकाः। असंख्याः (कृत्याकृतः) कृती छेदने-क्यप्, टाप्+करोतेः-क्विप्। उपद्रवकर्तारो रोगाः (च) (ये) (सर्वान्) समस्तान् रोगान् (विनक्तु) विचिर् पृथग्भावे। पृथक् करोतु (तेजसः) प्रभावात् (अरसान्) नीरसान्। निष्प्रभावान् (जङ्गिडः) म०१। जङ्गमः। संचारकः (करत्) कुर्यात् ॥

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    विषय

    'रोग-शक्ति' क्षय

    पदार्थ

    १. (या:) = जो (त्रिपञ्चाशी:) = 'त्रि' तीनों-शरीर, मन और बुद्धि तथा 'पञ्च'-पाँचों कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों व पाँचों प्राणों की शक्ति को ('आशी:') = खा जानेवाली (गृत्स्य:) = [गृधू अभिकांक्षायाम्] खाने या पीने की प्रबल कामनावाली पीड़ाएँ हैं, [जैसे भस्मक रोग में] (च) = तथा (ये) = जो (शतम्) = सैकड़ों (कृत्याकृतः) = छेदन-भेदन करनेवाली व्याधियाँ हैं, उन (सर्वान्) = सबको (जङ्गिड:) = यह शरीर में शत्रुबाधन के लिए गतिवाली वीर्यशक्ति (तेजसः विनक्तु) = तेज से पृथक् करे। उनके प्रभाव को हीन कर दे। २. यह जंगिडमणि उनको (अरसान् करत्) = रसरहित-निर्बलकर दे। इस वीर्यशक्ति के कारण उन बिमारियों का प्रभाव जाता रहे, वे निष्प्रभाव हो जाएँ।

    भावार्थ

    शरीर में विविध व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। उन सबको यह बीर्यशक्ति निष्प्रभाव कर डालती है।

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    भाषार्थ

    (त्रिपञ्चाशीः) तीन और पांच में व्याप्त होने वाली (याः) जो (गृत्स्यः) गर्धावृत्तियां अर्थात् अभिकांक्षाएं या लालसाएं हैं, (च) और (कृत्याकृतः) हिंसा करनेवाले (ये) जो (शतम्) सैकड़ों रोग कीटाणु हैं, (जङ्गिडः) जङ्गिड औषध (सर्वान्) उन सबको (तेजसः) उनके निज प्रभावों से (विनक्तु) पृथक् कर दे, और उन्हें (अरसान्) रसों से रहित (करत्) कर दे, विषैले रसों से रहित कर दे।

    टिप्पणी

    [त्रिपञ्चाशीः= त्रि+पञ्च+अश (व्याप्तौ)+ङीप्। खान-पान-वस्त्रादि सम्बन्धी शारीरिक गर्धाएं, अभिकांक्षाएं ; सांसारिक भोगों की प्रार्थनाओं सम्बन्धी वाचिक-गर्धाएँ, अभिकांक्षाएं; भोगसम्बन्धी विचार अर्थात् मानसिक-गर्धाएं, अभिकांक्षाएं—ये गर्धाएं शरीर वाणी और मन, इन तीनों में व्याप्त हैं। इसी प्रकार रूपगर्धा, रसगर्धा, गन्धगर्धा, स्पर्शगर्धा, और शब्दगर्धा, ये पांच गर्धाएं पांच ज्ञानेन्द्रियों में व्याप्त हैं। गृत्स्यः=गृधु अभिकांक्षायाम्। गृध्+सः (कित्), तथा “ध्” को “द्” गृधिपण्योर्दकौ च” (उणा० ३.६९)+ ङीप्+प्रथमाबहुवचन। जङ्गिड औषध इन गर्धाओं को निस्तेज और अरस करती है। इसी प्रकार इस औषध के सेवन द्वारा हिंसक कीटाणु भी निस्तेज और अरस हो जाते हैं। कृत्याकृतः=कृत्या (कृती छेदने)+कृतः (कृ+क्विप्+ तुक्+प्रथमाबहुवचन। रोगकीटाणुओं (=कृमियों) के लिये देखो—अथर्व० कां० २, सू० ३१,३२; तथा कां० ५। सू० २३। विनक्तु=विचिर् पृथग्भावे।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jangida Mani

    Meaning

    Hundred and fifty’s are the deadly diseases, and hundreds are the mysterious evil ones. All these, may Jangida turn to saplessness, deprive them of their virulence, and stop their growth immediately.

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    Translation

    What fifty-three greedy plotters are there and hundreds of the evil device-makers, may the jangida deprive them of their power and make them impotent.

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    Translation

    This Jangida is really Jangida, the consumer of disease etc. This Jangida is protective one. Let this Jaigida guard all our bipeds and quadrupeds.

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    Translation

    Let this potent herb destroy the women of ill repute, the large group of gamblers and hundreds of secret means of destruction like mines and dynamites employed by the enemy to harm us. Let it set all these at naught by its powerful energy and radiation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(याः) (गृत्स्यः) गृध्रिपण्योर्दकौ च। उ०३।६९। गृधु अभिकाङ्क्षायाम्-स प्रत्ययः, कित् धस्य दः, ङीप्। गर्धनशीलाः पीडाः (त्रिपञ्चाशीः) पूरणार्थे डट्। टित्वाद् ङीप्। त्रिवारं पञ्चाशतसंख्याकाः। असंख्याः (कृत्याकृतः) कृती छेदने-क्यप्, टाप्+करोतेः-क्विप्। उपद्रवकर्तारो रोगाः (च) (ये) (सर्वान्) समस्तान् रोगान् (विनक्तु) विचिर् पृथग्भावे। पृथक् करोतु (तेजसः) प्रभावात् (अरसान्) नीरसान्। निष्प्रभावान् (जङ्गिडः) म०१। जङ्गमः। संचारकः (करत्) कुर्यात् ॥

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