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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त
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    उ॒ग्र इत्ते॑ वनस्पत॒ इन्द्र॑ ओ॒ज्मान॒मा द॑धौ। अमी॑वाः॒ सर्वा॑श्चा॒तयं॑ ज॒हि रक्षां॑स्योषधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒ग्रः। इत्। ते॒। व॒न॒स्प॒ते॒। इन्द्रः॑। ओ॒ज्मान॑म्। आ। द॒धौ॒। अमी॑वाः। सर्वाः॑। चा॒तय॑न्। ज॒हि। रक्षां॑सि। ओ॒ष॒धे॒ ॥३४.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उग्र इत्ते वनस्पत इन्द्र ओज्मानमा दधौ। अमीवाः सर्वाश्चातयं जहि रक्षांस्योषधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उग्रः। इत्। ते। वनस्पते। इन्द्रः। ओज्मानम्। आ। दधौ। अमीवाः। सर्वाः। चातयन्। जहि। रक्षांसि। ओषधे ॥३४.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 9
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    हिन्दी (3)

    विषय

    सबकी रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (वनस्पते) हे वनस्पति ! [सेवा करनेवालों के रक्षक] (ते) तुझको (उग्रः) उग्र (इन्द्रः) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् जगदीश्वर] ने (इत्) ही (ओज्मानम्) बल (आ) सब ओर से (दधौ) दिया है। (ओषधे) हे ओषधि ! (सर्वाः) सब (अमीवाः) पीड़ाओं को (चातयन्) नाश करता हुआ तू (रक्षांसि) [रोग-जन्तुओं] को (जहि) मार ॥९॥

    भावार्थ

    मनुष्य जङ्गिड औषध के सेवन से सब रोगों को नाश करके रोग-जन्तुओं का भी नाश करें ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(उग्रः) प्रचण्डः (ते) तुभ्यम् (वनस्पते) हे वनानां सेवकानां रक्षक (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (ओज्मानम्) उब्ज आर्जवे-मनिन्, बलोपः, यद्वा ओज बले-मनिन्। सामर्थ्यम् (आ) समन्तात् (दधौ) ददौ (अमीवाः) पीडाः (सर्वाः) (चातयन्) नाशयन् (जहि) मारय (रक्षांसि) राक्षसान्। रोगजन्तून् (ओषधे) ॥

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    विषय

    अमीवा:-रक्षांसि

    पदार्थ

    १. हे जंगिड! तू (इत्) = निश्चय से (उग्र:) = तेजस्वी है। (इन्द्रः) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु ने, हे (वनस्पते) = वनस्पति-बिकार वीर्य! (ते) = तुझमें (ओज्मानम्) = ओज को-शक्ति को आदधौ स्थापित किया है। २. हे ओषधे-दोषों का दहन करनेवाले वीर्य! तू (सर्वा:) = सब (अमीवा:) रोगों को (चातयन्) = नष्ट करता हुआ (रक्षांसि) = अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाले इन रोगकृमियों को (जहि) = नष्ट कर डाल।

    भावार्थ

    प्रभु ने वीर्य में अद्भुत शक्ति रक्खी है। यह सब रोगों व रोगकृमियों को विनष्ट कर डालता है।

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    भाषार्थ

    (वनस्पते) हे वनस्पतिजन्य जङ्गिड! (उग्रः इन्द्रः इत्) प्रभावशाली परमेश्वर या मेघीय विद्युत् ने ही (ते) तेरे (ओज्मानम्) ओज को (आ दधौ) तुझ में आहित किया, स्थापित किया है। (ओषधे) हे दोषनाशक जङ्गिड! (सर्वाः) सब (अमीवाः) रोगों को (चातयन्) विनष्ट करती हुई तू (रक्षांसि) रोग-कीटाणुओं का (जहि) हनन कर।

    टिप्पणी

    [वनस्पते= जङ्गिड औषध कृषिजनित ओषधियों के रसों द्वारा निर्मित होता है, इसलिए इसे वनस्पति कहा है। देखो—अथर्व० १९.३४.१ की व्याख्या। इन्द्र= परमेश्वर या मेघीय विद्युत् (अथर्व० १९.३५.१)। अमीवाः=अम रोगे (Amoeba)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jangida Mani

    Meaning

    O Jangida, Vanaspati, Oshadhi, giver of heat and light of life, as the omnipotent Indra rendered you vigorous and lustrous, therefore destroy and eliminate all suffering and diseases, kill all germs and viruses, perpetrators of evil and destruction.

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    Translation

    O Lord of forest, the resplendent Lord, indeed, has put in you formidable power; thrusting away all maladies, may you destroy injurious germs, O herb.

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    Translation

    This is the prctector of them who use it, it is full of vigour and splendour and it possesses un-measured strength. Indra, the sun gives power to it who consume the disease completely.

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    Translation

    O furious lord of heat and energy, the Almighty Lord has placed a great force in thee. O heat-storing herb, all the disease-breeding germs and microbes, tearing them off by your force.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(उग्रः) प्रचण्डः (ते) तुभ्यम् (वनस्पते) हे वनानां सेवकानां रक्षक (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (ओज्मानम्) उब्ज आर्जवे-मनिन्, बलोपः, यद्वा ओज बले-मनिन्। सामर्थ्यम् (आ) समन्तात् (दधौ) ददौ (अमीवाः) पीडाः (सर्वाः) (चातयन्) नाशयन् (जहि) मारय (रक्षांसि) राक्षसान्। रोगजन्तून् (ओषधे) ॥

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