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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त
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    अ॑र॒सं कृ॒त्रिमं॑ ना॒दम॑रसाः स॒प्त विस्र॑सः। अपे॒तो ज॑ङ्गि॒डाम॑ति॒मिषु॒मस्ते॑व शातय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र॒सम्। कृ॒त्रिम॑म्। ना॒दम्। अ॒र॒साः। स॒प्त। विऽस्र॑सः। अप॑। इ॒तः। ज॒ङ्गि॒डः॒। अम॑तिम्। इषु॑म्। अस्ता॑ऽइव। शा॒त॒य॒ ॥३४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरसं कृत्रिमं नादमरसाः सप्त विस्रसः। अपेतो जङ्गिडामतिमिषुमस्तेव शातय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरसम्। कृत्रिमम्। नादम्। अरसाः। सप्त। विऽस्रसः। अप। इतः। जङ्गिडः। अमतिम्। इषुम्। अस्ताऽइव। शातय ॥३४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सबकी रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (अरसम्) नीरस [निष्प्रभाव], (कृत्रिमम्) बनावटी (नादम्) ध्वनि को, और (अरसाः) नीरस [निष्प्रभाव] (सप्त) सात [दो कान, दो नथने, दो आँखें और एक मुख में भी] (विस्रसः) विचल करनेवाली [निर्बलतओं] को और (अमतिम्) दुर्बुद्धि को (इतः) इस [रोगी] से, (जङ्गिडः) हे जङ्गिड ! [संचार करनेवाले औषध] (अस्ता इव) धनुर्धारी के समान (इषुम्) बाण को (अप शातय) दूर गिरा दे ॥३॥

    भावार्थ

    रोग के कारण से जो शब्द में, इन्द्रियों में और बुद्धि में विकार हो जाता है, वह जङ्गिड ओषधि के सेवन से अच्छा होता है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(अरसम्) निष्प्रभावम् (कृत्रिमम्) क्रियया निर्वृत्तम् (नादम्) ध्वनिम् (अरसाः) निष्प्रभावः (सप्त) सप्तसंख्याकाः। शीर्षण्यसप्तगोलकसम्बन्धिनीः (विस्रसः) स्रसेः क्विप्। विचालनशीला निर्बलताः (अप) दूरे (इतः) अस्मात्। रुग्णात् (जङ्गिडः) म०१। हे संचारकौषध (अमतिम्) दुर्बुद्धिम् (इषुम्) बाणम् (अस्ता) इषुक्षेप्ता (इव) यथा (शातय) शद्लृ शातने-णिचि लोट्। नाशय। अपगमय ॥

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    विषय

    कत्रिम नाद की अरसता

    पदार्थ

    १. कई रोगों में हर समय कान में 'शुं शुं'-सी ध्वनि होती रहती है। उसे यहाँ 'कृत्रिम नाद' कहा गया है। वीर्यशक्ति के द्वारा (कृत्रिमं नादं अरसम्) = यह कृत्रिम नाद क्षीण हो जाता है तथा शरीर में होनेवाले (सप्त) = 'दो कानों, दो आँखें, दो नासिका-छिद्र तथा मुख' इन सात से होनेवाले (विस्त्रस:) = निष्यन्द-रसों का टपकना (अरसा:) = क्षीण हो जाए। २. (जङ्गिड) = हे वीर्यमणे! तू (इत:) = हमारे शरीर से (अमतिम्) = दुर्बुद्धि को व बुद्धि की कमी को इसप्रकार (अपशातय) = सुदूर विनष्ट कर (इव) = जैसेकि (अस्ता) = बाणों को फेंकनेवाला (इषुम्) = बाण को दूर फेंकता है।

    भावार्थ

    वीर्यशक्ति के सुरक्षित होने पर कानों में यों ही होनेवाली 'शू समाप्त हो जाती है, कान आदि से प्रवाहित होनेवाले निष्यन्द रुक जाते हैं, निर्बुद्धिता दूर भाग जाती है।

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    भाषार्थ

    (जङ्गिड) हे जङ्गिड! (कृत्रिमम्) कफ द्वारा होनेवाली अस्वाभाविक (नादम्) खर-खर ध्वनि को (अरसम्) रसरहित कर दे, सुखा दे; (सप्त) शिरोगत सात छिद्रों से (विस्रसः) बहनेवाले दुर्गन्धित रस (अरसाः) सूख जायें। (इव) जैसे (अस्ता) धनुर्धारी (इषुम्) बाण को दूर फैंकता है, वैसे तू (इतः) इस व्यक्ति से (अमतिम्) मति के अभाव या कुमति को (अप शातय) दूर फैंक दे।

    टिप्पणी

    [जङ्गिड के सेवन से कफ रोग, जुकाम आदि, तथा कुमति का अभाव, और मननशक्ति का प्रादुर्भाव होता है। शातय= शद्लृ शातने; शातनम्=विशीर्णता।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jangida Mani

    Meaning

    O Jangida, just as an archer shoots off the arrow so, pray, shoot off the hoarse voice and dry the cough, cure the seven kinds of debility, decay, paralysis and disjointures, and so pray cure loss of understanding and loss of memory.

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    Translation

    Unpleasant artificial noise, and unpleasant seven discharges, and the thoughtlessness - them O jangida, may You throw away just as an archer shoots an arrow.

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    Translation

    whatsoever are these fifty three kinds of covetous inclinations, whatever are these hundred wounding forces let this Jangida quell them with its vigor and make them ineffectual.

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    Translation

    Enfeeble the artificial high resoundings of the enemy. Make null and void all his evil efforts from all the seven directions. O Jangida, slash off the invincible foe from here, like an archer.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अरसम्) निष्प्रभावम् (कृत्रिमम्) क्रियया निर्वृत्तम् (नादम्) ध्वनिम् (अरसाः) निष्प्रभावः (सप्त) सप्तसंख्याकाः। शीर्षण्यसप्तगोलकसम्बन्धिनीः (विस्रसः) स्रसेः क्विप्। विचालनशीला निर्बलताः (अप) दूरे (इतः) अस्मात्। रुग्णात् (जङ्गिडः) म०१। हे संचारकौषध (अमतिम्) दुर्बुद्धिम् (इषुम्) बाणम् (अस्ता) इषुक्षेप्ता (इव) यथा (शातय) शद्लृ शातने-णिचि लोट्। नाशय। अपगमय ॥

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