अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 6
ऋषिः - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त
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त्रिष्ट्वा॑ दे॒वा अ॑जनय॒न्निष्ठि॑तं॒ भूम्या॒मधि॑। तमु॒ त्वाङ्गि॑रा॒ इति॑ ब्राह्म॒णाः पू॒र्व्या वि॑दुः ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिः। त्वा॒। दे॒वाः। अ॒ज॒न॒य॒न्। निऽस्थि॑तम्। भूम्या॑म्। अधि॑। तम्। ऊं॒ इति॑। त्वा॒। अङ्गि॑राः। इति॑। ब्रा॒ह्म॒णाः। पू॒र्व्याः। वि॒दुः॒ ॥३४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिष्ट्वा देवा अजनयन्निष्ठितं भूम्यामधि। तमु त्वाङ्गिरा इति ब्राह्मणाः पूर्व्या विदुः ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिः। त्वा। देवाः। अजनयन्। निऽस्थितम्। भूम्याम्। अधि। तम्। ऊं इति। त्वा। अङ्गिराः। इति। ब्राह्मणाः। पूर्व्याः। विदुः ॥३४.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सबकी रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
[हे औषध !] (देवाः) विद्वानों ने (भूम्याम्) भूमि में (अधि) भले प्रकार (निष्ठितम्) जमे हुए (त्वा) तुझको (त्रिः) तीन बार [जोतने, बोने और सींचने से] (अजनयन्) उत्पन्न किया है। (उ) और (पूर्व्याः) प्राचीन (ब्राह्मणाः) विद्वान् वैद्य लोग (तम् त्वा) उस तुझको (विदुः) जानते हैं−(अङ्गिराः इति) कि यह अङ्गिरा [बड़ा व्यापनशील] है ॥६॥
भावार्थ
बड़े-बड़े वैद्य लोग जङ्गिड औषध के प्रभाव को सदा से जानते और उसकी प्राप्ति का उपाय करते रहे हैं ॥६॥
टिप्पणी
६−(त्रिः) त्रिवारम्। कर्षणवपनसेचनेन (त्वा) त्वाम् (देवाः) विद्वांसः (अजनयन्) उत्पादयन् (निष्ठितम्) दृढं स्थितम् (भूम्याम्) पृथिव्याम् (अधि) अधिकारपूर्वकम् (तम्) तादृशम् (उ) च (त्वा) त्वाम् (अङ्गिराः) अ०२।१२।४। अङ्गतेरसिरिराडागमश्च। उ०४।२३६। अगि गतौ-असि, इरुडागमः। व्यापनशीलः (इति) वाक्यपूरणः (ब्राह्मणाः) विद्वांसो वैद्याः (पूर्व्याः) पूर्वजाः (विदुः) जानन्ति ॥
विषय
'अङ्गिराः' जङ्गिडः
पदार्थ
१. (भूम्याम् अधि) = इस पृथिवीरूप शरीर में (निष्ठितम्) = निश्चय से स्थित (त्वा) = तुझको, हे जंगिड! (देवा:) = देववृत्ति के पुरुषों ने (त्रिः) = [त्रिषु लोकेषु अवस्थानाय सा०] शरीर, मन व बुद्धि रूप पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक, इन तीनों लोकों में स्थित होने के लिए (अजनयन) = उत्पत्र किया है। जब यह वीर्य [जंगिड] शरीर में सुरक्षित होता है तब यह मन को भी शुद्ध बनाता है और बुद्धि को भी सूक्ष्म करता है। २. हे जंगिड! (तम् उ त्वा) = उस तुझको ही निश्चय से (पूर्व्याः ब्राह्मणा:) = अपना पालन व पूरन करनेवाले ज्ञानी लोग (अङ्गिराः इति) = अंग-प्रत्यंग में रस का संचार करनेवाले के रूप में (विदुः) = जानते हैं। शरीर में सुरक्षित वीर्य सब अंगों को रसमय बनाता है। इससे शरीर में जरावस्था का शीघ्र आक्रमण नहीं होता।
भावार्थ
शरीर में सुरक्षित वीर्य 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों का व्यापन करता है। यह अंग प्रत्यंग में रस का संचार करता है।
भाषार्थ
हे जङ्गिड औषध! (भूम्याम् अधि) भूमि में (निष्ठितम्) स्थित (त्वा) तुझे (देवाः) औषधवेत्ता विद्वान्, (त्रिः) वर्ष में तीन बार (अजनयन्) उपजाते हैं। (पूर्व्याः) औषधविज्ञान के पूर्णवेत्ता (ब्राह्मणाः) वैदिक विद्वान्, (तम् उ त्वा) हे जङ्गिड! उस तुझे को, (अङ्गिराः इति) अङ्गिरा नाम से (विदुः) जानते हैं।
टिप्पणी
[देवाः= विद्वांसो वै देवाः (श० ब्रा० ३.७.३.१०)। पूर्व्याः= पुर्व पूरणे। ब्राह्मणाः=ब्रह्म (वेदः) तज्ज्ञाः। अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं। यथा—“तमृचः सामानि च यजूंषि ब्रह्म चानुव्यचलन्” (अथर्व० १५.६.८)। तथा ब्रह्म का अर्थ “मन्त्र” भी होता है। जङ्गिड को “अंगिराः” कहा है, क्योंकि यह कृषिजन्य ओषधियों के अङ्गों का रसरूप है, देखो—अथर्व० १९.३४.१ की व्याख्या। अङ्गिराः=अङ्गानां रसः।]
इंग्लिश (4)
Subject
Jangida Mani
Meaning
Thrice in the year do the learned specialists grow and develop you, Jangida, and versatile as you are, the ancient Brahmanas knew you and called you ‘Angira’, the comprehensive, the universal, the panacea.
Translation
Thrice the bounties of Nature created you well set on the earth; the intellectuals of old knew that you are Añgiras (by name).
Translation
This is the gendeur of the efficacy of Jangida and let it protect us from all sides. Let this vigorous Jangida over power Sanskandha, the shoulder pain through that power by which it dispels the Vishkandha, the pain of neck. [N.B. :—These Vishkandha and Sarkandha seen to be the rheumatic pain of shoulder and neck.]
Translation
The learned physicians grow thee well by transplanting thee thrice in the well-prepared soil. The learned Vedic scholars of yore, well-versed in biological science knew thee.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(त्रिः) त्रिवारम्। कर्षणवपनसेचनेन (त्वा) त्वाम् (देवाः) विद्वांसः (अजनयन्) उत्पादयन् (निष्ठितम्) दृढं स्थितम् (भूम्याम्) पृथिव्याम् (अधि) अधिकारपूर्वकम् (तम्) तादृशम् (उ) च (त्वा) त्वाम् (अङ्गिराः) अ०२।१२।४। अङ्गतेरसिरिराडागमश्च। उ०४।२३६। अगि गतौ-असि, इरुडागमः। व्यापनशीलः (इति) वाक्यपूरणः (ब्राह्मणाः) विद्वांसो वैद्याः (पूर्व्याः) पूर्वजाः (विदुः) जानन्ति ॥
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