अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 71/ मन्त्र 3
यः कु॒क्षिः सो॑म॒पात॑मः समु॒द्र इ॑व॒ पिन्व॑ते। उ॒र्वीरापो॒ न का॒कुदः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । कु॒क्षि: । सो॒म॒ऽपात॑म: । स॒मु॒द्र:ऽइ॑व । पिन्व॑ते ॥ उ॒र्वी: । आप॑: । न । का॒कुद॑: ॥७१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यः कुक्षिः सोमपातमः समुद्र इव पिन्वते। उर्वीरापो न काकुदः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । कुक्षि: । सोमऽपातम: । समुद्र:ऽइव । पिन्वते ॥ उर्वी: । आप: । न । काकुद: ॥७१.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (कुक्षिः) तत्त्वरस निकालनेवाला, (सोमपमातमः) ऐश्वर्य का अत्यन्त रक्षक मनुष्य (समुद्रः इव) समुद्र के समान (उर्वीः) भूमियों को और (काकुदः न) वेदवाणी जाननेवाले के समान (आपः) शुभकर्म को (पिन्वते) सींचता है ॥३॥
भावार्थ
विज्ञानी, ऐश्वर्यवान् दूरदर्शी सत्यवादी पुरुष ही प्रजारक्षक होता है ॥३, ४॥
टिप्पणी
म० ४-६ आचुके हैं अ० २०।६०।४-६ ॥ ३−(यः) पुरुषः (कुक्षिः) प्लुषिकुषिशुषिभ्यः क्सिः। उ० ३।१। कुष निष्कर्षे-क्सि। तत्त्वनिष्कर्षकः (सोमपातमः) अतिशयेनैश्वर्यरक्षकः (समुद्रः) उदधिः (इव) यथा (पिन्वते) सिञ्चति (उर्वीः) पृथिवीः (आपः) आपः कर्माख्यायां ह्रस्वो नुट् च वा। उ० ४।२०८। आप्नोतेः-असुन्। शुभकर्म (न) यथा (काकुदः) सम्पदादिभ्यः क्विप्। वा० पा० ३।३।९४। कै शब्दे-क्विप्+कु शब्दे-क्विप्, तुगागमः, तकारस्य दः। कां शब्दनं कौति वदति सा काकुत्। काकुत् इति वाङ्नाम-निघ० १।११। तदधीते तद् वेद। पा० ४।२।९। काकुद्-अण्। वेदवाणीवेत्ता ॥
विषय
कर्मवीर, न कि वाग्वीर
पदार्थ
१. (यः कक्षि:) = जो उदर (सोमपातम:) = अधिक-से-अधिक सोम का पान करनेवाला होता है, अर्थात् सोम को अपने में पूर्णतया सुरक्षित करता है, वही (समुद्रः इव) = अन्तरिक्ष के समुद्र की भाँति (पिन्वते) = सेचन करनेवाला होता है। समुद्र जैसे मेषरूप होकर सबपर सुखों की वर्षा करनेवाला होता है, इसी प्रकार यह संयमी पुरुष भी सभी को सुखी करने का प्रयत्न करता है। २. इस संयमी पुरुष के (आप:) = कर्म (उर्वी) = विशाल होते हैं। उदारं धर्ममित्याहुः' उदारता व विशालता ही तो कर्मों को धर्म बनाती है। संकुचित मनोवृत्ति से किये जानेवाले कर्म पाप होते हैं। (न काकुदः) = यह कर्मबीर पुरुष बहुत बोलता नहीं। [काकुद-वाणी]। यह वीर कर्म पर ही बल देता है, बोलने पर नहीं।
भावार्थ
हम सोम-रक्षण करते हुए अन्तरिक्षस्थ मेष की भौति सबपर सखों का वर्षण करनेवाले हों, उदार [विशाल] कार्यों को करनेवाले बनें, बोलें कम।
भाषार्थ
हे परमेश्वर! आपका (यः) जो (कुक्षिः) उदर, अर्थात् अन्तरिक्ष, (सोमपातमः) अभिषुत जल का अत्यधिक पान करता है, और जो (समुद्र इव) समुद्र के सदृश (पिन्वते) सदा प्रीणित रहता है, वे आप (काकुदः) विस्तृत वेदवाणी के भी प्रदाता हैं, (उर्वीः आपः न) जैसे कि आपने समुद्रस्थ महाजल प्रदान किया है।
टिप्पणी
[सोम=जल; water (आप्टे)। कुक्षिः=उदर=अन्तरिक्ष; “अन्तरिक्षमुतोदरम्” (अथर्व০ १०.७.३२)। काकुदः=काकुत्+दः। काकुत्=वाक् (निघं০ १.११)। छान्दस “त्” का लोप।]
इंग्लिश (4)
Subject
In dr a Devata
Meaning
Indra, the sun, is the womb of life, it feeds and promotes the life-giving vegetation. Just as the sea and the space-ocean of vapours augment the waters, the wide earth generates and promotes life, the throat cavity sustains prana, and prana promotes speech, so does the sun nourish and promote life, soma and joy.
Translation
Almighty God who is the most protective force of guarding - the universe, is pervading all the regions like vast space. He contains whole universe within Him. He pours happiness like the wide streams of water.
Translation
Almighty God who is the most protective force of guarding the universe, is pervading all the regions like vast space. He contains whole universe within Him. He pours happiness like the wide streams of water.
Translation
He is the Mighty God, holding all energy in His lap, the Best Protector of the Creation, Deep like the ocean, nourishes all the creatures and the worlds, like the waters of the cloud irrigating the vast lands.
Footnote
The verse can apply to the king even.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
म० ४-६ आचुके हैं अ० २०।६०।४-६ ॥ ३−(यः) पुरुषः (कुक्षिः) प्लुषिकुषिशुषिभ्यः क्सिः। उ० ३।१। कुष निष्कर्षे-क्सि। तत्त्वनिष्कर्षकः (सोमपातमः) अतिशयेनैश्वर्यरक्षकः (समुद्रः) उदधिः (इव) यथा (पिन्वते) सिञ्चति (उर्वीः) पृथिवीः (आपः) आपः कर्माख्यायां ह्रस्वो नुट् च वा। उ० ४।२०८। आप्नोतेः-असुन्। शुभकर्म (न) यथा (काकुदः) सम्पदादिभ्यः क्विप्। वा० पा० ३।३।९४। कै शब्दे-क्विप्+कु शब्दे-क्विप्, तुगागमः, तकारस्य दः। कां शब्दनं कौति वदति सा काकुत्। काकुत् इति वाङ्नाम-निघ० १।११। तदधीते तद् वेद। पा० ४।२।९। काकुद्-अण्। वेदवाणीवेत्ता ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্ত্যব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(যঃ) যে (কুক্ষিঃ) তত্ত্বরস নিষ্পাদনকারী, (সোমপমাতমঃ) ঐশ্বর্যের পরম রক্ষক মনুষ্য (সমুদ্রঃ ইব) সমুদ্রের সমান (উর্বীঃ) ভূমিকে এবং (কাকুদঃ ন) বেদবাণীর জ্ঞাতার সমান (আপঃ) শুভকর্ম (পিন্বতে) সিঞ্চন/পান করে ॥৩॥
भावार्थ
বিজ্ঞানী, ঐশ্বর্যবান্ দূরদর্শী সত্যবাদী পুরুষই প্রজারক্ষক হন ॥৩, ৪॥ম০ ৪-৬ আছে অ০ ২০।৬০।৪-৬ ॥
भाषार्थ
হে পরমেশ্বর! আপনার (যঃ) যে (কুক্ষিঃ) উদর, অর্থাৎ অন্তরিক্ষ, (সোমপাতমঃ) অভিষুত/নিষ্কাশিত জলের অত্যধিক পান করে, এবং যা (সমুদ্র ইব) সমুদ্রের সদৃশ (পিন্বতে) সদা প্রীণিত/প্রসন্ন/সন্তুষ্ট থাকে, সেই আপনি (কাকুদঃ) বিস্তৃত বেদবাণীর প্রদাতা, (উর্বীঃ আপঃ ন) যেমন আপনি সমুদ্রস্থ মহাজল প্রদান করেছেন।
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