अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 71/ मन्त्र 7
इन्द्रेहि॒ मत्स्यन्ध॑सो॒ विश्वे॑भिः सोम॒पर्व॑भिः। म॒हाँ अ॑भि॒ष्टिरोज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । आ । इ॒हि॒ । मत्सि॑ । अन्ध॑स: । विश्वे॑भि: । सो॒म॒पर्व॑ऽभि: ॥ म॒हान् । अ॒भि॒ष्टि: । ओज॑सा ॥७१.७॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेहि मत्स्यन्धसो विश्वेभिः सोमपर्वभिः। महाँ अभिष्टिरोजसा ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । आ । इहि । मत्सि । अन्धस: । विश्वेभि: । सोमपर्वऽभि: ॥ महान् । अभिष्टि: । ओजसा ॥७१.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (आ इहि) तू प्राप्त हो, और (विश्वेभिः) सब (सोमपर्वभिः) ऐश्वर्य के उत्सवों के साथ (अन्धसः) अन्न से (मत्सि) तृप्त कर, तू (ओजसा) बल से (महान्) महान् और (अभिष्टिः) सब प्रकार पूजनीय है ॥७॥
भावार्थ
मनुष्य परमात्मा का सहाय लेकर आपस में मिलकर विद्या द्वारा ऐश्वर्य बढ़ाने और अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करें ॥७॥
टिप्पणी
मन्त्र ७-१६ ऋग्वेद में है-१।९।१-१०, मन्त्र ७ यजुर्वेद ३३।२ और सामवेद-पू० २।९।६ ॥ ७−(इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (आ) समन्तात् (इहि) प्राप्नुहि (मत्सि) श्यनो लुक्। मादयस्व। हर्षाय (अन्धसः) अन्नात् (विश्वेभिः) सर्वैः (सोमपर्वभिः) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७। सोम+पॄ पालनपूरणयोः-वनिप्। सोमस्य ऐश्वर्यस्य पर्वभिरुत्सवैः (महान्) उत्कृष्टः (अभिष्टिः) यजेः-क्तिन्, यद्वा इष गतौ-क्तिन्। एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वक्तव्यम्। वा० पा० ६।१।९४। इति पररूपम्। सर्वतः पूजनीयः (ओजसा) बलेन ॥
विषय
सोम-रक्षण व महत्त्व-प्राप्ति
पदार्थ
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे इन्द्र इन्द्रियों के (अधिष्ठात:) = जीव! तू (इहि) = मेरी ओर आ। (अन्धसः) = इस सोम के द्वारा तू (मत्सि) = आनन्द का अनुभव कर। इन (विश्वेभिः) = सब (सोमपर्वभिः) = सोम के शरीर में ही पूरणों के द्वारा (महान्) = तू बड़ा बनता है। सोम-रक्षण द्वारा मनुष्य उन्नत होता हुआ अन्तत: ब्रह्म को प्राप्त होता है। २. इसप्रकार महान् बनकर (ओजसा अभिष्टिः) = ओजस्विता के साथ शत्रुओं का अभिभविता बन। [शत्रूणामभिभविता]। सोम-रक्षण से ही 'तेज, बल, ओज, व सहस्' प्राप्त होते हैं और हम शत्रुओं को कुचलने में समर्थ होते हैं।
भावार्थ
प्रभु की उपासना करते हुए हम सोम का रक्षण करनेवाले बनें। यही महत्त्व प्राप्ति का मार्ग है। इसी से हम ओजस्वी बनकर शत्रुओं का अभिभव करनेवाले बनेंगे।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (एहि) प्रकट हूजिए, (सोमपर्वभिः विश्वेभिः) भक्तिरस यज्ञ के सभी पर्वों द्वारा आप (अन्धसः) भक्तिरसरूपी अन्न से (मत्सि) प्रसन्न हूजिए। आप (ओजसा) ओज द्वारा (महान्) महान् हैं, और (अभिष्टिः) आप हमारे अभीष्ट हैं।
टिप्पणी
[पर्व=भक्ति-यज्ञों के काल। जैसे कि “तं यज्ञं प्रावृषा प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः” (अथर्व০ १९.६.११)। अर्थात् “यज्ञस्वरूप परमेश्वर को, वर्षाकाल से प्रारम्भ करके, भक्तिरस द्वारा सींचना चाहिए”। इसी प्रकार “वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः” (अथर्व০ १९.६.१०); अर्थात् “वसन्तकाल से भक्तियज्ञ प्रारम्भ करना चाहिए”। इस प्रकार वर्षा तथा वसन्त ऋतु भक्तियज्ञ के पर्व हैं।
इंग्लिश (4)
Subject
In dr a Devata
Meaning
Indra, lord of light and life, come with all the soma-celebrations of food, energy and joy, great as you are with majesty, power and splendour omnipresent, and give us the ecstasy of living with enlightenment.
Translation
O Almighty God, you come to us, you with all the parts of this cosmic order gladen the world and you are great and strong with power.
Translation
O Almighty God, you come to us, you with all the parts of this cosmic order gladden the world and you are great and strong with power.
Translation
O Powerful God or king, come (i.e., enable us to realise Thou) Thou gladdenest (the devotees) by all means and resources full of pleasure-giving essence of food-grains etc. By virtue of Thy Energy and Valour, Thou art a Great Object worth achieving.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
मन्त्र ७-१६ ऋग्वेद में है-१।९।१-१०, मन्त्र ७ यजुर्वेद ३३।२ और सामवेद-पू० २।९।६ ॥ ७−(इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (आ) समन्तात् (इहि) प्राप्नुहि (मत्सि) श्यनो लुक्। मादयस्व। हर्षाय (अन्धसः) अन्नात् (विश्वेभिः) सर्वैः (सोमपर्वभिः) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७। सोम+पॄ पालनपूरणयोः-वनिप्। सोमस्य ऐश्वर्यस्य पर्वभिरुत्सवैः (महान्) उत्कृष्टः (अभिष्टिः) यजेः-क्तिन्, यद्वा इष गतौ-क्तिन्। एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वक्तव्यम्। वा० पा० ६।१।९४। इति पररूपम्। सर्वतः पूजनीयः (ओजसा) बलेन ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্ত্যব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যবান্ পরমাত্মন্] (আ ইহি) আপনি প্রাপ্ত হন, এবং (বিশ্বেভিঃ) সকল (সোমপর্বভিঃ) ঐশ্বর্যের উৎসবের সহিত (অন্ধসঃ) অন্ন দ্বারা (মৎসি) তৃপ্ত করুন, আপনি (ওজসা) বল দ্বারা (মহান্) মহান্ এবং (অভিষ্টিঃ) সর্বতোভাবে পূজনীয় ॥৭॥
भावार्थ
মনুষ্য পরমাত্মার সহায়তা নিয়ে পরস্পরের সহিত একত্রে মিলিত হয়ে বিদ্যা দ্বারা ঐশ্বর্য বৃদ্ধি এবং অন্নাদি পদার্থ প্রাপ্ত করার জন্য প্রয়াস করুক॥৭॥ মন্ত্র ৭-১৬ ঋগ্বেদে আছে-১।৯।১-১০, মন্ত্র ৭ যজুর্বেদ ৩৩।২৫ এবং সামবেদ-পূ০ ২।৯।৬ ॥
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (এহি) প্রকট হন, (সোমপর্বভিঃ বিশ্বেভিঃ) ভক্তিরস যজ্ঞের সকল পর্ব দ্বারা আপনি (অন্ধসঃ) ভক্তিরসরূপী অন্ন দ্বারা (মৎসি) প্রসন্ন হন। আপনি (ওজসা) ওজ দ্বারা (মহান্) মহান্, এবং (অভিষ্টিঃ) আপনি আমাদের অভীষ্ট ।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal