अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 71/ मन्त्र 9
मत्स्वा॑ सुशिप्र म॒न्दिभि॒ स्तोमे॑भिर्विश्वचर्षणे। सचै॒षु सव॑ने॒ष्वा ॥
स्वर सहित पद पाठमत्स्व॑ । सु॒ऽशि॒प्र॒ । म॒न्दिऽभि॑: । स्तोमे॑भि: । वि॒श्व॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । सचा॑ । ए॒षु । सव॑नेषु । आ ॥७१.९॥
स्वर रहित मन्त्र
मत्स्वा सुशिप्र मन्दिभि स्तोमेभिर्विश्वचर्षणे। सचैषु सवनेष्वा ॥
स्वर रहित पद पाठमत्स्व । सुऽशिप्र । मन्दिऽभि: । स्तोमेभि: । विश्वऽचर्षणे । सचा । एषु । सवनेषु । आ ॥७१.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(सुशिप्र) हे बड़े ज्ञानी ! (विश्वचर्षणे) हे सब गतिशील मनुष्यों के स्वामी ! [वा सबके देखनेवाले परमेश्वर] (मन्दिभिः) हर्ष देनेवाले (स्तोमेभिः) स्तुतियोग्य व्यवहारों के साथ (सचा) सदा मेल से (एषु) इन (सवनेषु) ऐश्वर्यवाले पदार्थों में (आ) अच्छे प्रकार (मत्स्व) आनन्दित कर ॥९॥
भावार्थ
सर्वज्ञ सर्वदर्शक परमेश्वर के गुणों को धारण करके मनुष्य दूरदर्शी और पुरुषार्थी होकर सबको सुखी करें ॥९॥
टिप्पणी
९−(मत्स्व) हर्षय (सुशिप्र) अ० २०।४।१। सृप्लृ गतौ-रक् सृशब्दस्य शिभावः। सृपः सर्पणादिदमपीतरत् सृपमेतस्मादेव सर्पिर्वा तैलं वा.......सुशिप्रमेतेन व्याख्यातम्-निरु० ६।१७। हे बहुज्ञानयुक्त [मन्दिभिः] म० ८। हर्षयितृभिः (स्तोमेभिः) स्तुत्यव्यवहारैः (विश्वचर्षणे) चर्षणयो मनुष्यनाम-निघ० २।३। सर्वे चरणशीला मनुष्या यस्य तत्सम्बुद्धौ। हे सर्वमनुष्यस्वामिन् ! हे सर्वदर्शक-निघ० ३।११। (सचा) समवायेन (एषु) प्रत्यक्षेषु (सवनेषु) ऐश्वर्ययुक्तेषु पदार्थेषु (आ) समन्तात् ॥
विषय
'सुशिप्र' बनना
पदार्थ
१. प्रभु जीव से कहते हैं-हे (सुशिप्र) = [हनू नासिके वा नि०६.२७]-शोभन हनुओं व नासिका-छिद्रोंबाले जीव! हनुओं द्वारा भोजन को खूब चबाकर खानेवाले तथा नासिका-छिद्रों से प्राणसाधना करनेवाले पूर्ण नीरोग व निर्दोष जीवनवाले जीव! तू (मन्दिभि:) = आनन्द देनेवाले (स्तोमेभि:) = प्रभु-स्तवनों से (मत्स्व) = एक मस्ती का अनुभव कर-तेरा हृदय प्रभु-स्तवन द्वारा आनन्द से परिपूर्ण हो जाए। खूब चबाकर खाने से भोजन का सम्यक् परिपाक होकर बीर्य आदि धातुओं का उत्तम निर्माण होगा। प्राणसाधना से इस वीर्य की ऊर्ध्वगति होगी। प्रभु-स्तवन भी इस कार्य में सहायक होगा। अब जीवन में एक मस्ती का अनुभव होगा। २. हे (विश्वचर्षणे) = सब मनुष्यों का ध्यान करनेवाले स्तोता! (एषु सवनेषु) = जीवन के प्रात:-माध्यन्दिन व सायन्तन' सवनों में (सचा) = सदा सोम के साथ रहता हुआ [सह] अथवा सोम का शरीर में ही समवाय [षच् समवाये] करता हुआ आ [गच्छ] तू हमारे प्राति आ।
भावार्थ
हम खूब चबाकर भोजन करते हुए वीर्य का सुन्दर निर्माण करें। प्राणसाधना द्वारा वीर्य की ऊर्ध्वगतिवाले हों। प्रभु-स्तवन में एक मस्ती का अनुभव करें। लोकहित में रत हुए हुए सदा सोम-रक्षण द्वारा प्रभु को प्राप्त करें।
भाषार्थ
(सुशिप्र) हे उत्तम ज्योतियों से सम्पन्न! (विश्वचर्षणे) हे विश्वद्रष्टा! (मन्दिभिः) प्रसन्नतादायक (स्तोमेभिः) सामगानों द्वारा (मत्सवा=मत्स्व) आप प्रसन्न हूजिए, और (एषु) इन (सवनेषु) भक्तिरसयज्ञों में (आ सच) हमारा साथ दीजिए। [सुशिप्र=सु+शिपि (ज्योति)+र (वाला)।]
इंग्लिश (4)
Subject
In dr a Devata
Meaning
Indra, Lord omniscient of universal presence, light and vision, with joyous songs of praise and celebration we invoke you and dedicate ourselves to you as our constant friend and guide. Come lord, and give us the bliss of existence in our yajnic acts of creation.
Translation
O All-beholding, O omniscient Divinity, you please, with all the groups of this created world full of pleasantness gladen us who are engaged in the performance of these Yajnas.
Translation
O All-beholding, O omniscient Divinity, you please, with all the groups of this created world full of pleasantness gladden us who are engaged in the performance of these Yajnas,
Translation
O Graceful Lord of Omniscience, be pleased with these gladdening songs of praises and also gladden us who are busy in these sacrificial acts of devotion.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(मत्स्व) हर्षय (सुशिप्र) अ० २०।४।१। सृप्लृ गतौ-रक् सृशब्दस्य शिभावः। सृपः सर्पणादिदमपीतरत् सृपमेतस्मादेव सर्पिर्वा तैलं वा.......सुशिप्रमेतेन व्याख्यातम्-निरु० ६।१७। हे बहुज्ञानयुक्त [मन्दिभिः] म० ८। हर्षयितृभिः (स्तोमेभिः) स्तुत्यव्यवहारैः (विश्वचर्षणे) चर्षणयो मनुष्यनाम-निघ० २।३। सर्वे चरणशीला मनुष्या यस्य तत्सम्बुद्धौ। हे सर्वमनुष्यस्वामिन् ! हे सर्वदर्शक-निघ० ३।११। (सचा) समवायेन (एषु) प्रत्यक्षेषु (सवनेषु) ऐश्वर्ययुक्तेषु पदार्थेषु (आ) समन्तात् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্ত্যব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(সুশিপ্র) হে পরম জ্ঞানী ! (বিশ্বচর্ষণে) হে সকল গতিশীল মনুষ্যদের স্বামী ! [বা সকলের প্রদর্শক পরমেশ্বর] (মন্দিভিঃ) হর্ষ প্রদাতা (স্তোমেভিঃ) স্তুতিযোগ্য ব্যবহারের সহিত (সচা) সদা সমন্বয়ের মাধ্যমে (এষু) এই সকল (সবনেষু) ঐশ্বর্যযুক্ত পদার্থে (আ) উত্তমরূপে (মৎস্ব) আনন্দিত করুন ॥৯॥
भावार्थ
সর্বজ্ঞ সর্বদর্শক পরমেশ্বরের গুণ-সমূহ ধারণ করে মনুষ্য দূরদর্শী এবং পুরুষার্থী হয়ে সকলকে সুখী করুক ॥৯॥
भाषार्थ
(সুশিপ্র) হে উত্তম জ্যোতিসম্পন্ন! (বিশ্বচর্ষণে) হে বিশ্বদ্রষ্টা! (মন্দিভিঃ) প্রসন্নতাদায়ক (স্তোমেভিঃ) সামগান দ্বারা (মৎসবা=মৎস্ব) আপনি প্রসন্ন হন, এবং (এষু) এই (সবনেষু) ভক্তিরসযজ্ঞে (আ সচ) আমাদের সঙ্গ দিন। [সুশিপ্র=সু+শিপি (জ্যোতি)+র (সম্পন্ন)।]
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