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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 56/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - विराट्प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - विषभेषज्य सूक्त
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    अ॒यं यो व॒क्रो विप॑रु॒र्व्यङ्गो॒ मुखा॑नि व॒क्रा वृ॑जि॒ना कृ॒णोषि॑। तानि॒ त्वं ब्र॑ह्मणस्पत इ॒षीका॑मिव॒ सं न॑मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । य: । व॒क्र: । विऽप॑रु: । विऽअ॑ङ्ग: । मुखा॑नि । व॒क्रा । वृ॒जि॒ना । कृ॒णोषि॑ । तानि॑ । त्वम् । ब्र॒ह्म॒ण॒: । प॒ते॒ । इ॒षीका॑म्ऽइव । सम् । न॒म॒: ॥५८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं यो वक्रो विपरुर्व्यङ्गो मुखानि वक्रा वृजिना कृणोषि। तानि त्वं ब्रह्मणस्पत इषीकामिव सं नमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । य: । वक्र: । विऽपरु: । विऽअङ्ग: । मुखानि । वक्रा । वृजिना । कृणोषि । तानि । त्वम् । ब्रह्मण: । पते । इषीकाम्ऽइव । सम् । नम: ॥५८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विष नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (अयम् यः) यह जो [विषरोगी] (वक्रः) टेढ़े शरीरवाला (विपरुः) विकृत जोड़ोंवाला (व्यङ्गः) ढीले अङ्गों [हाथ पैरों] वाला (मुखानि) अपने मुख के अवयवों [दाँत नाक नेत्र आदि] को (वक्रा) टेढ़ा और (वृजिना) ऐंठे मरोड़े (कृणोषि=कृणोति) करता है। (ब्रह्मणः पते) हे बड़े ज्ञान के स्वामी [वैद्यराज !] (त्वम्) तू (तानि) उन [अङ्गों] को (सम् नमः) मिलाकर ठीक करदे (इव) जैसे (इषीकाम्) काँस वा मूँज को [रसरी के लिये] ॥४॥

    भावार्थ

    वैद्य लोग विष रोगी को औषध आदि से शीघ्र स्वस्थ करें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(अयम्) (यः) विषरोगी (वक्रः) कुटिलावयवः (विपरुः) विश्लिष्टपर्वा विकृतसन्धिः (व्यङ्गः) विकृताङ्गः (मुखानि) मुखावयवान् (वक्रा) कुटिलानि (वृजिना) अ० १।१०।३। क्लिष्टानि (कृणोषि) प्रथमस्य मध्यमपुरुषः। कृणोति। करोति (तानि) अङ्गानि (त्वम्) (ब्रह्मणस्पते) प्रवृद्धस्य ज्ञानस्य रक्षक वैद्यराज (इषीकाम्) ईषेः किद्ध्रस्वश्च। उ० ४।२१। ईष हिंसने-ईकन्, टाप्। काशं मुञ्जं वा (इव) यथा (सम्) संगत्य (नमः) णम प्रह्वत्वे शब्दे च-लेटि, अडागमः। सं नमय। ऋजू कुरु ॥

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    विषय

    विषजनित वक्रता का निरास

    पदार्थ

    १. (अयम्) = यह (यः) = जो सर्पदष्ट पुरुष (वक्र:) = कुटिल अवयवोंवाला [संकोचित अवयवोंवाला] (विपरु:) = विश्लिष्ट पर्वोवाला [विगतसन्धि] (व्यंग:) = विकृत अंगोंवाला होता हुआ (मुखानि) = मुख आदि अंगों को (वक्रा) = कुटिल व (वृजिना) = अनवस्थित-मुड़ा-तुड़ा हुआ, (कृणोषि) = करता है, हे (ब्रह्मणस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् वैद्य ! (तानि) = उन अंगों को तू इसप्रकार (संनम:) = सन्नत कर, सीधा कर (इव) = जैसेकि (इषीकाम्) = एक ऋजु व दीर्घ इपीका को, बलपूर्वक कुटिल की हुई को, उसकी कुटिलता को दूर करके सरल कर देते हैं। इसी प्रकार इस सरलांग पुरुष को, विष के कारण जिसमें कुछ कुटिलता आ गई है, विषनिर्हरण द्वारा फिर यथावस्थित अंगोंवाला कर दे।

    भावार्थ

    विष के प्रभाव से अंगो में उत्पन्न कुटिलता व वक्रता को विष-दूरीकरण द्वारा एक सद्वैद्य दूर करके अंगों को पुनः सरलता प्राप्त कराए।

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    भाषार्थ

    (यः अयम्) जो यह तू [हे सर्पदष्ट पुरुष] (वक्रः) कुटिलावयव, (विपरुः) शिथिल सन्धि (व्यङ्गः) विकृताङ्ग हुआ (मुखानि) निज मुखावयवों को (वक्रा) विकृत तथा (वृजिना) वर्जनीयरूपी (कृणोषि) कर लेता है, (तानि) उन अङ्गों को (ब्रह्मणस्पते) हे वेद के विज्ञ ! (त्वम्) तू (सं नमः) सम्यक् प्रकार से नम्र अर्थात् ऋजु कर दे, (इषीकाम् इव) जैसे टेढ़े सरकण्डे को नम्र अर्थात् ऋजु किया जाता है।

    टिप्पणी

    [बृहस्पति= वेदोक्त विषविद्या का ज्ञाता वेदविद्वान्]।

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    विषय

    विषचिकित्सा।

    भावार्थ

    विषों को वश करने की रीति लिखते हैं—हे (ब्रह्मणः स्पते) वेदविद्या के विद्वन् ! (यः) जो (अयं) यह (वक्रः) टेढ़ा मेढ़ा (वि-परुः) सन्धिस्थानों में नाना प्रकार की चेष्टा करता हुआ (वि-अङ्गः) अङ्गों में विकार दिखाता हुआ, छटपटाता हुआ, काले नाग से काटा हुआ पुरुष (वृजिना) वर्जन करने योग्य या बलपूर्वक, असाध्य रूप से (मुखानि) मुखों को (वक्रा) टेढ़े मेढ़े (कृणोषि) करता है, (तानि) उनको (स्वं) तू (इषीकाम्-इव) सींक के समान (सं नमः) झुका दे या सीधा कर दे। अथवा—यह मंत्र सर्प काटे पुरुष पर न लगकर सर्प पर भी लगता हैं (अयं यः) यह जो सर्प (वि-परुः) नाना पोरुओं वाला, (वि-अङ्गः) विचित्र शरीर का (वृजिना) दुःखदायी प्रहार करने वाले, (मुखानि) मुखों को (वक्रा) टेढ़े करता है, फुंफकार फुंफकार कर मारता है। हे (ब्रह्मणस्पते) विद्वन् ! (त्वं) तू (तानि) उसके इन सब मुखों को (इषी कामिव सं नमः) सींक के समान झुका देता है। अर्थात् तेरे विचार और औषधिबल से वह नाग अपने फन को धरती पर झुका लेता है। दि भाष्यकारों ने उक्त मन्त्र की पूर्व रीति से व्याख्या की है। हमें दूसरी सहमत है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः वृश्चिकादयो देवताः। २ वनस्पतिर्देवता। ४ ब्रह्मणस्पतिर्देवता। १-३, ५-८, अनुष्टुप्। ४ विराट् प्रस्तार पंक्तिः। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Poison Cure

    Meaning

    O Brahmanaspati, physician, this patient is twisted in body, his joints are slack, his limbs are crippled, his mouth, face, teeth and tongue are all deformed and crooked, all these he twists and twirls. Pray put them back in proper shape and order as munja grass.

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    Subject

    Brahmanas patih

    Translation

    You crooked, jointless and limbless creature, who make your faces (countenances) crooked and vicious, O Lord of knowledge (Brahamanaspati), may you bend them straight like a reed.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.58.4AS PER THE BOOK

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    Translation

    Bend together like a reed, O physician; these wicked jaws which this tortuous, limbless and joint less snake stretches and twists.

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    Translation

    This snake-bitten patient, has a crooked body, deformed joints, loose limbs like hands and feet, who twists and makes awry the parts of the face like teeth, nose and eyes O skilled physician set right and bend together these jaws like a reed.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(अयम्) (यः) विषरोगी (वक्रः) कुटिलावयवः (विपरुः) विश्लिष्टपर्वा विकृतसन्धिः (व्यङ्गः) विकृताङ्गः (मुखानि) मुखावयवान् (वक्रा) कुटिलानि (वृजिना) अ० १।१०।३। क्लिष्टानि (कृणोषि) प्रथमस्य मध्यमपुरुषः। कृणोति। करोति (तानि) अङ्गानि (त्वम्) (ब्रह्मणस्पते) प्रवृद्धस्य ज्ञानस्य रक्षक वैद्यराज (इषीकाम्) ईषेः किद्ध्रस्वश्च। उ० ४।२१। ईष हिंसने-ईकन्, टाप्। काशं मुञ्जं वा (इव) यथा (सम्) संगत्य (नमः) णम प्रह्वत्वे शब्दे च-लेटि, अडागमः। सं नमय। ऋजू कुरु ॥

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