अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 56/ मन्त्र 5
ऋषिः - अथर्वा
देवता - वृश्चिकादयः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विषभेषज्य सूक्त
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अ॑र॒सस्य॑ श॒र्कोट॑स्य नी॒चीन॑स्योप॒सर्प॑तः। वि॒षं ह्यस्यादि॒ष्यथो॑ एनमजीजभम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र॒सस्य॑ । श॒र्कोट॑स्य । नी॒चीन॑स्य । उ॒प॒ऽसर्प॑त: । वि॒षम् । हि । अ॒स्य॒ । आ॒ऽअदि॑षि । अथो॒ इति॑ । ए॒न॒म् । अ॒जी॒ज॒भ॒म् ॥५८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अरसस्य शर्कोटस्य नीचीनस्योपसर्पतः। विषं ह्यस्यादिष्यथो एनमजीजभम् ॥
स्वर रहित पद पाठअरसस्य । शर्कोटस्य । नीचीनस्य । उपऽसर्पत: । विषम् । हि । अस्य । आऽअदिषि । अथो इति । एनम् । अजीजभम् ॥५८.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विष नाश का उपदेश।
पदार्थ
(अस्य) इस (अरसस्य) निर्बल [तुच्छ वा काटनेवाले], (नीचीनस्य) नीचे पड़े हुए, (उपसर्पतः) रेंगते हुए, (शर्कोटस्य) काटकर टेढ़ा कर देनेवाले [बिच्छू आदि] के (विषम्) विष को (हि) निश्चय करके (आ-अदिषि) मैंने खण्डित कर दिया है (अथो) और (एनम्) इस [जन्तु] को (अजीजभम्) मैंने कुचल डाला है ॥५॥
भावार्थ
बिच्छू आदि के विष को हटाकर उस विषैले जन्तु को भी मार डालें, जिससे वह औरों को न सतावे ॥५॥
टिप्पणी
५−(अरसस्य) निर्बलस्य तुच्छस्य। यद्वा। अत्यविचमितमि०। उ० ३।११७। ऋ हिंसायाम्-असच्। हिंसकस्य (शर्कोटस्य) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। शॄ हिंसायां-विच्+कुट कौटिल्ये-घञ्। शरा हिंसनेन कुटिलीकरस्य (नीचीनस्य) नीच-ख। नीचदेशे भवस्य (उपसर्पतः) समीपं गच्छतः (विषम्) (हि) अवश्यम् (आ-अदिषि) दो खण्डने लुङ्, अत्मनेपदं छान्दसम्। सर्वतः खण्डितवानस्मि (अथो) अपि च (एनम्) जन्तुम् (अजीजभम्) जभि हिंसने। अनीनशम् ॥
विषय
शकोंट हिंसन
पदार्थ
१. इस (अरसस्य) = निवीर्य, विषसामर्थ्यरहित (नीचीनस्य) = न्यग्भूत (अवाङ्मुख) = नीचे किये हुए मुखवाले, (उपसर्पत:) = समीप आते हुए (अस्य) = इस (शॉटस्य) = शकर्कोट नामक [हिंसन द्वारा कुटिलता पैदा करनेवाले] सर्प के (विषम्) = विष को (हि) = निश्चय से (आ अदिषि) = खण्डित करता हैं, विष को नष्ट करता हैं अथो और (एनम्) = इस विषवाले शर्कोट सर्प को भी (अजीजभम्) = मैंने हिंसित किया है।
भावार्थ
शर्कोट नामक विषैले प्राणी के विष को नष्ट करके उस विषैले प्राणी को भी मार देना चाहिए।
भाषार्थ
(अरसस्य) निर्वीर्य (नीचीनस्य) नीचे पृथिवी पर विचरते हुए, (उपसर्पतः) समीप आते हुए (अस्य शर्कोटस्य१) इस विच्छू ? के (विषम् हि) विष को (आ अदिषि) मैंने खण्डित कर दिया है (अथो) तथा (एनम्) इसे (अजीजभम्) मार दिया है।
टिप्पणी
[मन्त्र (६-८) से शर्कोट बिच्छु प्रतीत होता है, यतः यह पूंछ में विष वाला है। अदिषि= लुङ् लकार, दो अवखण्डने (दिवादिः)। अजीजभम् =जभि नाशने (चुरादिः)]। [१. "शर्कोट" शर् शॄ (हिंसायाम्) + कः (करोति) + अट् (अटति), हिंसा करता हुआ जो विचरता है।]
विषय
विषचिकित्सा।
भावार्थ
नाग-दमन का उपदेश करके अब उनके विष-संग्रह का उपदेश करते हैं। पूर्वोक्त रीति से (अरसस्य) मन्त्र अर्थात् विचार और औषध के बल से निर्बल हुए, और (नीचीनस्य) नीचे पड़े पड़े (उप-सर्पतः) सरकते हुए (अस्य) इस (शर्कोटस्य) शर्कोट या कर्कोट नामक भयंकर महानाग के भी (विषं) विष को मैं विषविद्या का वेत्ता पुरुष (आ-अदिषि) तोड़ डालता हूँ या ले लेता हूँ। उसको पकड़ कर उसके मुख से निकाल लेता हूं, और फिर (एनम्) उस नाग को (अजीजभम्) मार डालूं या पकड़ कर अपने बन्धन में रखलूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः वृश्चिकादयो देवताः। २ वनस्पतिर्देवता। ४ ब्रह्मणस्पतिर्देवता। १-३, ५-८, अनुष्टुप्। ४ विराट् प्रस्तार पंक्तिः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Poison Cure
Meaning
I destroy the poison of this bloodless scorpion coming up crawling from below, and I have crushed it.
Translation
I remove (destroy) the poison of this scorpion (or the snake; Sarkota), who nears us creeping on the ground; and thereafter I kill him.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.58.5AS PER THE BOOK
Translation
I remove the poison of this scorpion and completely demolish it which creeps along low on the ground and which is powerless.
Translation
I have removed the poison of this scorpion or snake and then utterly demolished him, that creeps along, low on the earth and is poisonless.
Footnote
‘I’ refers to a snake-charmer.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(अरसस्य) निर्बलस्य तुच्छस्य। यद्वा। अत्यविचमितमि०। उ० ३।११७। ऋ हिंसायाम्-असच्। हिंसकस्य (शर्कोटस्य) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। शॄ हिंसायां-विच्+कुट कौटिल्ये-घञ्। शरा हिंसनेन कुटिलीकरस्य (नीचीनस्य) नीच-ख। नीचदेशे भवस्य (उपसर्पतः) समीपं गच्छतः (विषम्) (हि) अवश्यम् (आ-अदिषि) दो खण्डने लुङ्, अत्मनेपदं छान्दसम्। सर्वतः खण्डितवानस्मि (अथो) अपि च (एनम्) जन्तुम् (अजीजभम्) जभि हिंसने। अनीनशम् ॥
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