Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 81 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 81/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सावित्री, सूर्यः, चन्द्रमाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूर्य-चन्द्र सूक्त
    0

    सोम॑स्यांशो युधां प॒तेऽनू॑नो॒ नाम॒ वा अ॑सि। अनू॑नं दर्श मा कृधि प्र॒जया॑ च॒ धने॑न च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोम॑स्य । अं॒शो॒ इति॑ । यु॒धा॒म् । प॒ते॒ । अनू॑न: । नाम॑ । वै । अ॒सि॒ । अनू॑नम् । द॒र्श॒ । मा॒ । कृ॒धि॒ । प्र॒ऽजया॑ । च॒ । धने॑न । च॒ ॥८६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमस्यांशो युधां पतेऽनूनो नाम वा असि। अनूनं दर्श मा कृधि प्रजया च धनेन च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सोमस्य । अंशो इति । युधाम् । पते । अनून: । नाम । वै । असि । अनूनम् । दर्श । मा । कृधि । प्रऽजया । च । धनेन । च ॥८६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 81; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सूर्य, चन्द्रमा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (सोमस्य) हे अमृत के (अंशो) बाँटनेवाले ! (युधाम्) हे युद्धों के (पते) स्वामी ! (वै) निश्चय करके तू (अनूनः) न्यूनतारहित [सम्पूर्ण] (नाम) प्रसिद्ध (असि) है। (दर्श) हे दर्शनीय ! (मा) मुझको (प्रजया) प्रजा से (च च) और (धनेन) धन से (अनूनम्) सम्पूर्ण (कृधि) कर ॥३॥

    भावार्थ

    पूर्ण चन्द्रमा अमृत का बाँटनेवाला इस लिये है कि उसकी किरणों से पार्थिव पदार्थों और प्राणियों में पोषण शक्ति पहुँचती है। और युद्धों का स्वामी इस कारण है कि पौर्णमासी को पार्थिव समुद्र का जल चन्द्रमा की ओर लहराता है, अथवा उल्लेखादि युद्धों अर्थात् ग्रह और तारा गणों के परस्पर निकट हो जाने वा टकरा जाने का काल चन्द्रमा की गति से निर्णय किया जाता है−देखो सूर्यसिद्धान्त, अध्याय ७। श्लोक १८-२३। मनुष्य पौष्टिक पदार्थों से उपकार लेकर प्रजावान् और धनवान् होवें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(सोमस्य) अमृतस्य। जीवनसाधनस्य (अंशो) अंशुः शमष्टमात्रो भवत्यननाय शं भवतीति वा-निरु० २।५। मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। अंश विभाजने-कु। अंशुः=सोमो विभागो विभक्ता वा। हे विभाजयितः (युधाम्) युद्धानां पार्थिवजलस्याकर्षणानाम्, यद्वा ग्रहतारागणानामुल्लेखादियुद्धानाम्, सूर्यसिद्धान्ते-अ० ७। श्लोक १८-२३ (पते) स्वामिन् (अनूनः) ऊन परिहाणे-क। न्यूनतारहितः। सम्पूर्णकलः (नाम) प्रसिद्धौ (वै) निश्चयेन (असि) (अनूनम्) सम्पूर्णं समृद्धम् (दर्श) दृश−घञ्। हे दर्शनीय। पूर्णचन्द्र (मा) माम् (कृधि) कुरु (प्रजया) सन्ततिभृत्यादिना (च च) समुच्चये (धनेन) ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    [सोम का अंशु] अनून:

    पदार्थ

    १. हे (सोमस्य अंशो) = सोम के अंश-चन्द्र के प्रकाश, चन्द्रमा को भी प्रकाशित करनेवाले प्रभो! (युधां पते) = युद्धों के स्वामिन, युद्धों में उपासकों को विजय प्राप्त करानेवाले! (अनूनः नाम वा असि) = आप निश्चय से 'अनून' हैं। आपमें किसी प्रकार से भी कोई कमी नहीं है। हे दर्श-दर्शनीय अथवा सर्वद्रष्टः प्रभो! आप (मा) = मुझे भी (अनूनं कृधि) = अन्यून बनाइए। प्(रजया च धनेन च) = प्रजा के दृष्टिकोण से तथा धन के दृष्टिकोण से मैं अनून बन पाऊँ-उत्तम प्रजावाला बनूं तथा उत्तम ऐश्वर्यवाला होऊँ।

    भावार्थ

    प्रभु चन्द्र आदि को भी प्रकाशित करनेवाले हैं, 'ज्योतिषां ज्योतिः' है। हमें युद्धों में विजय प्राप्त करानेवाले हैं। सर्वद्रष्टा, न्यूनता से रहित प्रभु की कृपा से मैं भी अनून बनूं उत्तम प्रजा व धनवाला हो।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (सोमस्य) वीर्य के (अंशो) अंशुरूप, ज्योतिरूप तया (युधां पते) योद्धाओं या युद्धों के स्वामिन् [क्षत्रिय रूप !] (वा= वै) निश्चय से (अनूनः१ नाम असि) सद्गुणों में न्यून तू नहीं है। (दर्श२) हे दर्शनीय ! (मा) मुझ पत्नी को (प्रजया च धनेन च) प्रजा और धन द्वारा (अनूनम्३) न्यूनतारहित (कृधि) कर।

    टिप्पणी

    [मन्त्रोक्ति पत्नी द्वारा हुई है। सोम= वीर्य (अथर्व० १४।१।१-५)। तथा सोम [सोमन्, उणा० १।१४०] तथा Semen (वीर्य) में श्रुति तथा अर्थ का भी साम्य है। अंशु = किरण, रश्मि। यथा “सहस्रांशुः"= सूर्यं। मन्त्र १,२ में चन्द्रमा के कथन द्वारा पत्नी का वर्णन हुआ है। मन्त्र ३ में सोमांशुरूप" पति का वर्णन अभिप्रेत है "युधां पते" द्वारा पति क्षत्रिय है, सेनापति है।] [१. तथा सोम= चन्द्रमा। यह कलाओं के न्यूनाधिक्य के कारण न्यूनाधिक प्रतीत होता है। वस्तुतः निजस्वरूप में चन्द्रमा अनून है, न्यून नहीं होता। २. दर्श है शुक्लपक्ष में अमावास्या रात्री के पश्चात् एककलायुक्त दृष्ट-चन्द्रमा। ३. यतः मन्त्रों में पत्नी को चन्द्रमा से रूपित किया है, इस कारण पत्नी के सम्बन्ध में पुल्लिङ्ग पदों का प्रयोग हुआ है।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सूर्य और चन्द्र।

    भावार्थ

    सूर्य और चन्द्र का वर्णन हो चुका अब चन्द्र की उपमा लेकर राजा और ईश्वर का वर्णन करते हैं। हे (युधां पते) समस्त योद्धा सैनिकों, क्षत्रियों के स्वामिन् ! सेनापते ! तथा योगियों के पालक प्रभो ! हे (सोमस्य) सबके प्रेरक, आह्लादक, अनुरंजक बल के (अंशो) व्यापक भण्डार ! तू भी (अनूनः नाम असि) ‘अनून’ नामवाला है। तू किसी प्रकार कम नहीं है। हे (दर्श) दर्शनीय ! अथवा सर्व प्रजा के द्रष्टः ! तू (मा) मुझको (प्रजया) प्रजा और (धनेन) धन से (च) भी (अनूनं) पूर्ण (कृधि) कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। सावित्री सूर्याचन्द्रमसौ च देवताः। १, ६ त्रिष्टुप्। २ सम्राट। ३ अनुष्टुप्। ४, ५ आस्तारपंक्तिः। षडृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Two Divine Children

    Meaning

    O Sun, O Moon, reflection of Soma, lord supreme creator and bliss of existence, O divine protector and promoter of the struggle of life, you are faultless, perfect and full for sure. O light all blissful, make me full and perfect, wanting in nothing. Bless me with wealth and progeny.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O lord of battles, (Budh; mercury), you are a portion of the moon. Verily, you are inferior to none in fame. O seen first (worthy of looking) may you make me inferior to none in progeny, as well as in riches.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.86.3AS PER THE BOOK

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O Somosya Ansho! (Universe-pervading Divinity) you are the ordainer of all movements, you are indubitably infinite. O All-viewing Lord. O All-viewing Lord! Make us perfect with wealth and progeny.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O God, the Nourisher of the yogis, O Treasure of delightful strength, All-perfect verily art Thou. Make me perfect, O Beautiful God, in riches and in progeny!

    Footnote

    Yogis have been spoken of as warriors who constantly wage war against sin and immorality.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(सोमस्य) अमृतस्य। जीवनसाधनस्य (अंशो) अंशुः शमष्टमात्रो भवत्यननाय शं भवतीति वा-निरु० २।५। मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। अंश विभाजने-कु। अंशुः=सोमो विभागो विभक्ता वा। हे विभाजयितः (युधाम्) युद्धानां पार्थिवजलस्याकर्षणानाम्, यद्वा ग्रहतारागणानामुल्लेखादियुद्धानाम्, सूर्यसिद्धान्ते-अ० ७। श्लोक १८-२३ (पते) स्वामिन् (अनूनः) ऊन परिहाणे-क। न्यूनतारहितः। सम्पूर्णकलः (नाम) प्रसिद्धौ (वै) निश्चयेन (असि) (अनूनम्) सम्पूर्णं समृद्धम् (दर्श) दृश−घञ्। हे दर्शनीय। पूर्णचन्द्र (मा) माम् (कृधि) कुरु (प्रजया) सन्ततिभृत्यादिना (च च) समुच्चये (धनेन) ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top