अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 81/ मन्त्र 6
ऋषिः - अथर्वा
देवता - सावित्री, सूर्यः, चन्द्रमाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूर्य-चन्द्र सूक्त
1
यं दे॒वा अं॒शुमा॑प्या॒यय॑न्ति॒ यमक्षि॑त॒मक्षि॑ता भ॒क्षय॑न्ति। तेना॒स्मानिन्द्रो॒ वरु॑णो॒ बृह॒स्पति॒रा प्या॑ययन्तु॒ भुव॑नस्य गो॒पाः ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । दे॒वा: । अं॒शुम् । आ॒ऽप्या॒यय॑न्ति । यम् । अक्षि॑तम् । अक्षि॑ता: । भ॒क्षय॑न्ति । तेन॑ । अ॒स्मान् । इन्द्र॑: । वरु॑ण: । बृह॒स्पति॑: । आ । प्या॒य॒य॒न्तु॒ । भुव॑नस्य । गो॒पा: ॥८६.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यं देवा अंशुमाप्याययन्ति यमक्षितमक्षिता भक्षयन्ति। तेनास्मानिन्द्रो वरुणो बृहस्पतिरा प्याययन्तु भुवनस्य गोपाः ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । देवा: । अंशुम् । आऽप्याययन्ति । यम् । अक्षितम् । अक्षिता: । भक्षयन्ति । तेन । अस्मान् । इन्द्र: । वरुण: । बृहस्पति: । आ । प्याययन्तु । भुवनस्य । गोपा: ॥८६.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सूर्य, चन्द्रमा के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ
(यम्) जिस (अंशुम्) अमृत [चन्द्रमा के रस] को (देवाः) प्रकाशमान सूर्य की किरणें [शुक्लपक्ष में] (आप्याययन्ति) बढ़ा देती हैं, और (यम्) जिस (अक्षितम्) बिना घटे हुए को (अक्षिताः) वे व्यापक [किरणें] (भक्षयन्ति) [कृष्ण पक्ष में] खा लेती हैं। (तेन) उसी [नियम] से (अस्मान्) हमको (भुवनस्य) संसार के (गोपाः) रक्षा करनेवाला (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् राजा, (वरुणः) श्रेष्ठ वैद्य और (बृहस्पतिः) बड़ी विद्याओं का स्वामी, आचार्य (आ) सब प्रकार (प्याययन्तु) बढ़ावें ॥६॥
भावार्थ
जिस नियम से सूर्य की किरणें चन्द्रमा के अनिष्ट रस को खींचकर अमृत उत्पन्न करती हैं, वैसे ही राजा आदि गुरुजन प्रजा के दुखों का नाश करके सुख प्राप्त करावें ॥६॥ इति सप्तमोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
६−(यम्) (देवाः) देवः=द्युस्थानः-निरु० ७।१५। प्रकाशमानाः सूर्यरश्मयः (अंशुम्)-म० ३। सोमम्। चन्द्ररसम् (आ प्याययन्ति) सर्वतो वर्धयन्ति, शुक्लपक्षे (यम्) (अक्षितम्) अक्षीणम् (अक्षिताः) अक्षू व्याप्तौ-क्त। व्याप्ताः किरणाः (भक्षयन्ति) अदन्ति। आकर्षन्ति, कृष्णपक्षे (तेन) नियमेन (अस्मान्) (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (वरुणः) श्रेष्ठो वैद्यः (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां पालकः। आचार्यः (आ) समन्तात् (प्याययन्तु) वर्धयन्तु (भुवनस्य) लोकस्य (गोपाः) गुपू रक्षणे-घञ्। गोपायितारः। रक्षकाः ॥
विषय
'इन्द्र, वरुण, बृहस्पति द्वारा वर्धन
पदार्थ
१. (यं अंशम्) = जिस प्रकाश-किरण को (देवाः) = देववृत्ति के पुरुष (आप्याययन्ति) = अपने में बढ़ाते हैं (यम् अक्षितम्) = जिस [न क्षितं यस्मात्] न नष्ट होनेवाले सोम [वीर्य] को (अक्षिता:) = [न क्षिताः] वासनाओं से अहिंसित व्यक्ति (भक्षयन्ति) = अपने अन्दर ग्रहण करते हैं, (तेन) = उसी प्रकाश-किरण व वीर्य से (इन्द्रः) = शत्रु-विद्रावक, (वरुण:) = पापनिवारक, (बृहस्पतिः) = सर्वोच्च ज्ञानी, ['इन्द्रः' शब्द ऐश्वर्यशाली का वाचक होता हुआ 'उत्तम वैश्य' का संकेत कर रहा है, 'वरुणः' पाप-निवारक राजा का संकेत करता हुआ उत्तम क्षत्रिय का प्रतिपादक है, बृहस्पतिः' सर्वोच्च ज्ञानी ब्राह्मण का प्रतिपादन कर रहा है। अंशु का आप्यायन व अक्षित का भक्षण ही हमें 'इन्द्र,वरुण व बृहस्पति बनाएगा।''] (भुवनस्य गोपः) = संसार का रक्षक प्रभु (अस्मान् आप्याययन्तु) = हमें आप्यायित करे।
भावार्थ
हम जितेन्द्रिय, निष्पाप, ज्ञानी व रक्षण-कार्य में प्रवृत्त होकर प्रकाश-किरणों व सोम [वीर्य] को अपने में सुरक्षित करें।
इसप्रकार प्रकाश व सोम को प्राप्त करनेवाला 'शौनक' [शुनं सुखं] अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
(यम् अंशुम्१) जिस वीर्यांशु को (देवाः) दिव्यकोटि के व्यक्ति (आप्याययन्ति) प्रवृद्ध करते हैं, और (यम्) जिस (अक्षितम्) क्षीण न हुए को, (अक्षिताः) अक्षितवीर्यवाले ब्रह्मचारी (भक्षयन्ति) गृहस्थ में भोगते हैं, (तेन) उस वीर्य की प्राप्ति द्वारा (इन्द्र) सम्राट् (वरुणः) माण्डलिक राजवर्ग (बृहस्पतिः) साम्राज्य की बृहती सेना का अधिपति (अस्मान्) हमें (आप्याययन्तु) समृद्ध करे, ये जो कि (भुवनस्य) समग्रभूमि के (गोपाः) रक्षक हैं।
टिप्पणी
[वीर्य की वृद्धि एकदम नहीं होती, वृद्धि अंश-अंशरूप में होती रहती है, अतः इन अंशों की रक्षा देवजन करते हैं, और अक्षितवीर्य वाले ऊर्ध्व रेतस्- ब्रह्मचारी गृहस्थ में इसका उपभोग करते हैं। अथवा इस को निज शरीर में लीन करते हैं]। [१. तथा चन्द्रमा के जिस अंशु को अक्षीण सूर्य-रश्मियां आष्यायित करती हैं शुक्ल पक्ष में; और कृष्णपक्ष में मानो उसका भक्षण करती है।]
विषय
सूर्य और चन्द्र।
भावार्थ
(यं) जिस (अंशुम्) व्यापक प्रभु की (देवाः) देवगण, तेजोमय सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि लोक और दिव्य गुणी विद्वान् लोग (आप्याययन्ति) महिमा को बढ़ाते हैं, अथवा (यं अंशुम् [ प्राप्य ] देवा [ आत्मानं ] आप्याययन्ति) जिस व्यापक प्रभु की शरण लेकर विद्वान्, शक्तिमान् लोग अपने आपको पुष्ट करते और बढ़ाते हैं। और (यम्) जिस (अक्षितम्) अविनाशी, रसरूप प्रभुको या उसकी दी हुई समृद्धि को (अक्षिताः) अविनाशी जीव (भक्षयन्ति) अन्न, जल, वायु और आनन्द रूप में उपभोग करते हैं। (तेन) उस ब्रह्मज्ञान से ही (इन्द्रः) ज्ञानवान्, अज्ञाननाशक, (वरुणः) दुःखों और पापों का निवारक, (बृहस्पतिः) वेद वाणी का पालक, आचार्य, राजा और अन्य विशाल विद्वान् लोग (भुवनस्य गोपाः) इस संसार के रक्षक होकर (अस्मान्) हमें भी (आप्याययन्तु) पुष्ट करें, बढ़ावें। आचार्य, राजा, पुरोहित आदि सभी लोग परब्रह्म की समस्त उपकारक शक्तियों से प्रजा को पुष्ट करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। सावित्री सूर्याचन्द्रमसौ च देवताः। १, ६ त्रिष्टुप्। २ सम्राट। ३ अनुष्टुप्। ४, ५ आस्तारपंक्तिः। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Two Divine Children
Meaning
That immortal soma of bliss and holy energy which the divinities augment, and which unviolated soma the unviolated people share and internalise, by that energy and bliss, may Indra, the sun, Varuna, the moon, and Brhaspati, lord of expansive space and boundless knowledge, protectors and procreators of the universe, augment our life, with that may they bless us.
Translation
The new moon, whom the bounties of Nature cause to wax, and whom,when complete, they, the complete ones, eat up - with that may the Lord resplendent, venerable and supreme, and the guardians of the world (bhuvanasya gopah), make us wax and increase.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.86.6AS PER THE BOOK
Translation
Let the sun, air and cloud which are the protectors of the world, increase us with that unwasting power of the moon which the Sun-rays increase in the bright half of the lunar month without being exhausted and which they consume up in dark past of the lunar month.
Translation
Whose glory of the All-pervading God, the learned magnify, the immortal souls resort to and enjoy Whom, the Immortal God, through His divine Knowledge, may the learned preceptor, the kings, the averters of sins, and the protectors of Vedic speech, all the guardians of the world, increases us.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(यम्) (देवाः) देवः=द्युस्थानः-निरु० ७।१५। प्रकाशमानाः सूर्यरश्मयः (अंशुम्)-म० ३। सोमम्। चन्द्ररसम् (आ प्याययन्ति) सर्वतो वर्धयन्ति, शुक्लपक्षे (यम्) (अक्षितम्) अक्षीणम् (अक्षिताः) अक्षू व्याप्तौ-क्त। व्याप्ताः किरणाः (भक्षयन्ति) अदन्ति। आकर्षन्ति, कृष्णपक्षे (तेन) नियमेन (अस्मान्) (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (वरुणः) श्रेष्ठो वैद्यः (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां पालकः। आचार्यः (आ) समन्तात् (प्याययन्तु) वर्धयन्तु (भुवनस्य) लोकस्य (गोपाः) गुपू रक्षणे-घञ्। गोपायितारः। रक्षकाः ॥
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