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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 81 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 81/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सावित्री, सूर्यः, चन्द्रमाः छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - सूर्य-चन्द्र सूक्त
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    द॒र्शोसि॑ दर्श॒तोसि॒ सम॑ग्रोऽसि॒ सम॑न्तः। सम॑ग्रः॒ सम॑न्तो भूयासं॒ गोभि॒रश्वैः॑ प्र॒जया॑ प॒शुभि॑र्गृ॒हैर्धने॑न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒र्श: । अ॒सि॒ । द॒र्श॒त: । अ॒सि॒ । सम्ऽअ॑ग्र: । अ॒सि॒ । सम्ऽअ॑न्त: । सम्ऽअ॑ग्र॒: । सम्ऽअ॑न्त: । भू॒या॒स॒म् । गोभि॑: । अश्वै॑: । प्र॒ऽजया॑ । प॒शुऽभि॑: । गृ॒है: । धने॑न ॥८६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दर्शोसि दर्शतोसि समग्रोऽसि समन्तः। समग्रः समन्तो भूयासं गोभिरश्वैः प्रजया पशुभिर्गृहैर्धनेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दर्श: । असि । दर्शत: । असि । सम्ऽअग्र: । असि । सम्ऽअन्त: । सम्ऽअग्र: । सम्ऽअन्त: । भूयासम् । गोभि: । अश्वै: । प्रऽजया । पशुऽभि: । गृहै: । धनेन ॥८६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 81; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सूर्य, चन्द्रमा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    [चन्द्र !] तू (दर्शः) दर्शनीय (असि) है, (दर्शतः) देखने का साधन (असि) है, (समग्रः) सम्पूर्ण गुणवाला, और (समन्तः) सम्पूर्ण कलावाला, (असि) है। (गोभिः) गोओं से, (अश्वैः) घोड़ों से, (पशुभिः) अन्य पशुओं से, (प्रजया) सन्तान भृत्य आदि प्रजा से, (गृहैः) घरों से (धनेन) और धन से (समग्रः) सम्पूर्ण और (समन्तः) परिपूर्ण (भूयासम्) मैं रहूँ ॥४॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार पूर्ण चन्द्र संसार का उपकार करता है, इसी प्रकार मनुष्य सब विधि से परिपूर्ण होकर परस्पर सहायक रहें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(दर्शः)-म० ३। दर्शनीयः (असि) भवसि (दर्शनः) अ० ४।१०।६। पश्यति येन सः। सूर्यः। चन्द्रः (समग्रः) सम्पूर्णगुणः (समन्तः) पूर्णकलः (समग्रः) संपूर्णः (समन्तः) समृद्धः (गोभिः) अश्वैः (प्रजया) (पशुभिः) हस्तिमहिषीमेषादिभिः (गृहैः) (धनेन) ॥

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    विषय

    समनः समन्तः

    पदार्थ

    १. हे सोम! शान्त प्रभो! आप (दर्श: असि) = सर्वद्रष्टा हैं। (दर्शतः असि) = योगियों द्वारा साक्षात् करने योग्य हैं। (समग्रः असि समन्तः) = समन्तात् सम्पूर्ण हैं। आपमें किसी भी दृष्टि से कहीं भी कमी नहीं है। हे प्रभो! मैं भी (गोभिः अश्वैः) = ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों से, [गमयन्ति अर्थान, अश्नुवते कर्मस] (प्रजया) = उत्तम सन्तानों से (पशुभिः) = गवादि पशओं से, (गृहैः धनेन) = गृह व धन के दृष्टिकोण से (समन्तः समग्रः) = समन्तात् समग्न-सब प्रकार से पूर्ण (भूयासम्) = होऊँ।

    भावार्थ

    हे प्रभो! आप सर्वद्रष्टा व दर्शनीय हैं। समन्तात् पूर्ण हैं। मुझे भी ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, प्रजा, गृह व धन के दृष्टिकोण से पूर्ण कीजिए।

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    भाषार्थ

    हे क्षत्रिय ! या सेनापति ! (दर्शः असि) तू दर्शनीय है, (दर्शतः असि) राष्ट्र के कार्यों की देखभाल करता है, (समग्रः१ असि) सद्गुणों से सम्पूर्ण है, (समन्तः) तू सद्गुणों की सीमा है। मैं भी (गोभिः) गौओं द्वारा, (अश्वैः) अश्वों द्वारा, (प्रजया) प्रजा द्वारा (पशुभिः) पशुओं द्वारा (गृहै:) गृहों द्वारा, (धनेन) धन द्वारा (समग्रः समन्तः) समग्ररूप तथा समग्रता की सीमारूप (भूयासम्) हो जाऊं। समन्तः = संगतः अन्तेन।

    टिप्पणी

    [राष्ट्र के प्रजाजनों द्वारा मांग हुई है, प्रजाजनों द्वारा सामूहिक मांग है, अतः एकवचन का प्रयोग हुआ है]। [१. चन्द्रमा-पक्ष में "अनून" [समग्र] होने की इच्छा "दर्श" अवस्था के चन्द्रमा से की गई है, न कि "पूर्णिमा" के चन्द्रमा से। दर्श के चन्द्रमा ने कलाओं की वृद्धि द्वारा पूर्णता को प्राप्त करना है, और पूर्णिमा के चन्द्रमा ने कलाओं के क्षय द्वारा अमावास्या की शून्यता की ओर प्रयाण करना है। दर्श के चन्द्रमा ने प्रकाशमार्ग का ग्रहण किया है, अतः वह सद्गुणी भी है।]

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    विषय

    सूर्य और चन्द्र।

    भावार्थ

    पूर्व मन्त्र में ‘दर्श’ से कहे पदार्थ की व्याख्या करते हैं हे (दर्श) दर्श ! तू दर्श है अर्थात् (दर्शतः) तू दर्शत = दर्शनीय है और भक्ति और योग द्वारा साक्षात् करने योग्य है। आप (सम्-अग्रः) सब प्रकार से और सब कामों में सब पदार्थों के आगे, सबके पूर्व विद्यमान, सबके कारणस्वरूप, और सबके अग्रणी नेतास्वरूप (असि) हो। और (सम्-अन्तः) सब प्रकार से समस्त संसार के अन्तः अर्थात् प्रलयकाल में सबको अपने भीतर प्रलीन करने हारे हो। हे प्रभो मैं भी (गोभिः) गौओं, (अश्वैः) अश्वों, (प्रजया) प्रजा और (पशुभिः) पशुओं (गृहैः) गृहों, और (धनेन) धन सम्पत्तियों से (सम्-अग्रः) सबका अग्रणी और (सम्-अन्तः) सब से पिछला अर्थात् सब से उत्कृष्ट (भूयासम्) होऊँ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। सावित्री सूर्याचन्द्रमसौ च देवताः। १, ६ त्रिष्टुप्। २ सम्राट। ३ अनुष्टुप्। ४, ५ आस्तारपंक्तिः। षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Two Divine Children

    Meaning

    O Moon, you are beautiful, beatific, perfect every way, in every part. I pray I too may be whole, perfect and full every way of life, with cows, horses, progeny, cattle, houses, wealth, honour and excellence.

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    Translation

    You are seen first (as new moon); you become more and - more visible (or you are beautiful to look at). You are full and complete. May I be full’ and complete with cows,with horses,with progeny, with cattle, with homes and with wealth.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.86.4AS PER THE BOOK

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    Translation

    This moon is beautiful and fair to see. It is complete in every part. May I be perfect in every aspect in steeds, kine, in children, cattle houses and wealth.

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    Translation

    O Beautiful God, Thou art Worthy of being discerned through devotion and Yoga (concentration). Thou art the Leader of all. Thou art the Absorber in self of all at the time of dissolution. May I be foremost of all, and fully blest in every way in kine, horses, children, cattle, houses, wealth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(दर्शः)-म० ३। दर्शनीयः (असि) भवसि (दर्शनः) अ० ४।१०।६। पश्यति येन सः। सूर्यः। चन्द्रः (समग्रः) सम्पूर्णगुणः (समन्तः) पूर्णकलः (समग्रः) संपूर्णः (समन्तः) समृद्धः (गोभिः) अश्वैः (प्रजया) (पशुभिः) हस्तिमहिषीमेषादिभिः (गृहैः) (धनेन) ॥

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