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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 27/ मन्त्र 3
    सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२७

    धे॒नुष्ट॑ इन्द्र सू॒नृता॒ यज॑मानाय सुन्व॒ते। गामश्वं॑ पि॒प्युषी॑ दुहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धे॒नु: । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । सू॒नृता॑ । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥ गाम् । अश्व॑म् । पि॒प्युषी॑ । दु॒हे॒ ॥२७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धेनुष्ट इन्द्र सूनृता यजमानाय सुन्वते। गामश्वं पिप्युषी दुहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धेनु: । ते । इन्द्र । सूनृता । यजमानाय । सुन्वते ॥ गाम् । अश्वम् । पिप्युषी । दुहे ॥२७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 27; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যবান্ পুরুষ] (তে) তোমার (ধেনুঃ) বাণী (সূনৃতা) প্রিয়, সত্য এবং (পিপ্যুষী) বর্ধনকারী হয়ে (সুন্বতে) তত্ত্ব নিষ্পাদনকারী (যজমানায়) যজমান [বিদ্বানদের সৎকার, সৎসঙ্গ ও বিদ্যাদি দাতার] জন্য (গাম্) ভূমি, বিদ্যা বা গাভী এবং (অশ্বম্) অশ্বসমূহকে (দুহে) সমৃদ্ধ করে॥৩॥

    भावार्थ - সত্যবাদী ঐশ্বর্যবান রাজা সৎকার করে বিদ্বানগনের উন্নতি করে রাজ্যের উন্নতি করবে ॥৩॥

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