यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 23
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - निचृत् बृहती,
स्वरः - मध्यमः
1
कस्त्वा॒ विमु॑ञ्चति॒ स त्वा॒ विमु॑ञ्चति॒ कस्मै॑ त्वा॒ विमु॑ञ्चति॒ तस्मै॑ त्वा॒ विमु॑ञ्चति॒। पोषा॑य॒ रक्ष॑सां भा॒गोऽसि॥२३॥
स्वर सहित पद पाठकः। त्वा॒। वि। मु॒ञ्च॒ति॒। सः। त्वा॒। वि। मु॒ञ्च॒ति॒। कस्मै॑। त्वा॒। वि। मु॒ञ्च॒ति॒। तस्मै॑। त्वा॒। वि। मु॒ञ्च॒ति॒। पोषा॑य। रक्ष॑साम्। भा॒गः। अ॒सि॒ ॥२३॥
स्वर रहित मन्त्र
कस्त्वा विमुञ्चति स त्वा विमुञ्चति कस्मै त्वावि मुञ्चति तस्मै त्वा विमुञ्चति । पोषाय रक्षसाम्भागो सि ॥
स्वर रहित पद पाठ
कः। त्वा। वि। मुञ्चति। सः। त्वा। वि। मुञ्चति। कस्मै। त्वा। वि। मुञ्चति। तस्मै। त्वा। वि। मुञ्चति। पोषाय। रक्षसाम्। भागः। असि॥२३॥
विषय - अग्नि में किसलिए पदार्थ डाला जाता है, यह उपदेश किया है॥
भाषार्थ -
(कः) कौन सुख देने वाला यजमान मनुष्य (त्वा) उस यज्ञ को (वि-मुञ्चति) छोड़ देता है? अर्थात् कोई नहीं। और--जो उस यज्ञ को (वि-मुञ्चति) छोड़ देता है, [त्वा] उसको (सः) वह यज्ञ-स्वरूप परमेश्वर भी त्याग देता है।
यज्ञ करने वाला मनुष्य (कस्मैं) किस प्रयोजन के लिए[त्वा] उस हवन-साम्रगी को अग्नि में (वि-मुञ्चति) डालता है? जिससे सब सुखों की प्राप्ति एवं (तस्मै,पोषाय) जिससे सब प्राणियों का पोषण होता है, इसलिए (त्वा) उस हवन-सामग्री को याजक (वि-मुञ्चति) अग्नि में डालता है। किंतु जो पदार्थ सब के उपकारक यज्ञ मे प्रयुक्त नहीं होता,वह (रक्षसाम्) दुष्ट-जनों से (भाग) उपभोग करने योग्य (असि) होता है॥ २।२३॥
भावार्थ -
जो मनुष्य ईश्वर से वेद के द्वारा आज्ञा किये हुये व्यवहार को छोड़ देता है वह सब सुखों से हीन हो कर दुष्ट जनों से पीड़ित सदा दुःखी रहता है।
किसी ने से पूछा कि जो यज्ञ को छोड़ देता है उसका क्या होता है? उसने कहा कि ईश्वर भी उसको छोड़ होता देता है।
उसने फिर पूछा कि ईश्वर क्यों उसे छोड़ देता है? उसने उत्तर दिया कि वह सदा दुःखी रहे, इसलिए।
आज्ञा का पालन करता है, वह सुखों से पुष्ट रहता है।
और जो उसकी आज्ञा को छोड़ देता है, वही राक्षस कहलाता है॥२।२३॥
भाष्यसार -
१. यज्ञ त्याग का फल--प्र॰--कौन यजमान यज्ञ का परित्याग करता है? उ॰--कोई नहीं, और जो यज्ञ को छोड़ देता है उसे परमेश्वर भी छोड़ देता है जिससे वह सदा दुखी रहता है।
२. अग्नि में द्रव्य होम का प्रयोजन--प्र॰- यजमान किसलिये पदार्थों का अग्नि में प्रक्षेप करता है? उ॰--सब सुखों की प्राप्ति के लिये तथा सब प्राणियों की पुष्टि के लिये। जो पदार्थ सर्वोपकारक यज्ञ में प्रयोग नहीं किया जाता वह राक्षसों का भाग है। जो यज्ञ-शेष पदार्थों का उपयोग करते हैं वे ईश्वर के आज्ञापालक देवता हैं और जो ईश्वर की इस आज्ञा का पालन नहीं करते, वे राक्षस हैं॥२।२३॥
विशेष -
वामदेवः। प्रजापतिः=ईश्वरः। निचृद् बृहतीः। मध्यमः॥
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