यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 26
स्व॒यं॒भूर॑सि॒ श्रेष्ठो॑ र॒श्मिर्व॑र्चो॒दाऽअ॑सि॒ वर्चो॑ मे देहि। सूर्य॑स्या॒वृत॒मन्वाव॑र्ते॥२६॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒यं॒भूरिति॑ स्वय॒म्ऽभूः। अ॒सि॒। श्रेष्ठः॑। र॒श्मिः। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। अ॒सि॒। वर्चः॑। मे॒। दे॒हि॒। सूर्य्य॑स्य। आ॒वृत॒मित्या॒ऽवृत॑म्। अनु॑। आ। व॒र्त्ते॒ ॥२६॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वयम्भूरसि श्रेष्ठो रश्मिर्वर्चादाऽअसि वर्चा मे देहि । सूर्यस्यावृतमन्वावर्ते ॥
स्वर रहित पद पाठ
स्वयंभूरिति स्वयम्ऽभूः। असि। श्रेष्ठः। रश्मिः। वर्चोदा इति वर्चःऽदाः। असि। वर्चः। मे। देहि। सूर्य्यस्य। आवृतमित्याऽवृतम्। अनु। आ। वर्त्ते॥२६॥
भाषार्थ -
हे जगदीश्वर अथवा विद्वन्! आप (श्रेष्ठः) अत्यन्त प्रशंसनीय (रश्मिः) सब को प्रकाश देने वाले तथा स्वयं प्रकाशमान (स्वयम्भूः) अनादि-स्वरूप (असि) हो, (वर्च्चोदाः) विद्या वा प्रकाश देने वाले (असि) हो, आप (मे) मुझे (वर्च्चः) विज्ञान वा प्रकाश (देहि) दीजिए अथवा देते ही हो।
मैं (सूर्य्यस्य) चराचर जगत् के आत्मा व्यापक तुझ जगदीश्वर अथवा विद्वान् जीव के (आवृतम्) सज्जन लोग जिसमें सदा वर्तमान रहते हैं उस आज्ञापालन अथवा उपदेशों को प्रकाशित करने में (अनु-आ-वर्त्ते) सदा लगा रहूँ॥२।२६॥
भावार्थ -
परमेश्वर और विद्वान् जीव के कोई माता पिता नहीं है किंतु यह ईश्वर ही सब का माता और पिता है। और--इससे उत्तम, प्रकाश का हेतु तथा विद्याप्रदान करने वाला नहीं है।
इस लिये सब मनुष्य ईश्वर और विद्वान् की आज्ञा में रहें॥२।२६॥
भाष्यसार -
१. ईश्वर--यहाँ सूर्य शब्द के श्लेष से दो अर्थ हैं--एक ईश्वर और दूसरा विद्वान्। प्रथम ईश्वर अर्थ कहते हैं--जगदीश्वर सब से उत्तम, सूर्य आदि पदार्थों को प्रकाशित करने वाला एवं स्वयं प्रकाशमय है। ईश्वर के माता-पिता कोई नहीं वही सब का माता-पिता है क्योंकि वह ‘स्वयम्भू’ है। प्रकाश एवं विद्या को देने वाला है, विज्ञान का दाता भी वही है। हम सदा ईश्वर की आज्ञा में रहें।
२. विद्वान्--विद्वान् पुरुष मनुष्यों में सब से श्रेष्ठ होता है, समाज के लिये प्रकाश देने वाला और स्वयं प्रकाश से भरपूर होता है। यहां विद्वान् को आत्मा की दृष्टि से कहा गया है कि जीव के माता-पिता कोई नहीं होते क्योंकि आत्मा भी अनादि होने से से स्वयम्भू है। विद्वान् विद्या और विज्ञान का देने वाला है। अतः अन्य पुरुष विद्वान् की आज्ञा में रहें॥
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