यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 25
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - सत्रस्य विष्णुर्देवता
छन्दः - निचृत् आर्ची पङ्क्ति,आर्ची पङ्क्ति,भूरिक् जगती,
स्वरः - पञ्चमः , निषाद
1
दि॒वि विष्णु॒र्व्यक्रꣳस्त॒ जाग॑तेन॒ च्छन्द॑सा॒ ततो॒ निर्भ॑क्तो॒ योऽस्मान् द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मोऽन्तरि॑क्षे॒ विष्णु॒र्व्यक्रꣳस्त॒ त्रैष्टु॑भेन॒ च्छन्द॑सा॒ ततो॒ निर्भ॑क्तो॒ योऽस्मान् द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मः। पृ॑थि॒व्यां विष्णु॒र्व्यक्रꣳस्त गाय॒त्रेण॒ च्छन्द॑सा॒ ततो॒ निर्भ॑क्तो॒ योऽस्मान् द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मोऽस्मादन्ना॑द॒स्यै प्र॑ति॒ष्ठाया॒ऽअग॑न्म॒ स्वः] सं ज्योति॑षाभूम॥२५॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वि। विष्णुः॑। वि। अ॒क्र॒ꣳस्त॒। जाग॑तेन। छन्द॑सा। ततः॑। निर्भ॑क्त॒ इति॒ निःऽभ॑क्तः। यः। अ॒स्मान्। द्वेष्टि॑। यम्। च॒। व॒यम्। द्वि॒ष्मः। अ॒न्तरि॑क्षे। विष्णुः॑। वि। अ॒क्र॒ꣳस्त॒। त्रैष्टु॑भेन। त्रैस्तु॑भे॒नेति॒ त्रैस्तु॑भेन। छन्द॑सा। ततः॑। निर्भ॑क्त॒ इति निःऽभ॑क्तः। यः। अ॒स्मान्। द्वेष्टि॑। यम्। च॒। व॒यम्। द्वि॒ष्मः। पृ॒थि॒व्याम्। विष्णुः॑। वि। अ॒क्र॒ꣳस्त॒। गा॒य॒त्रेण॑। छन्द॑सा। ततः॑। निर्भ॑क्त॒ इति॒ निःऽभ॑क्तः। यः। अ॒स्मान्। द्वेष्टि॑। यम्। च॒। व॒यम्। द्वि॒ष्मः। अ॒स्मात्। अन्ना॑त्। अ॒स्यै। प्र॒ति॒ष्ठायै॑। प्र॒ति॒स्थाया॒ इति॑ प्रति॒ऽस्थायै॑। अग॑न्म। स्व॒रिति॒ स्वः᳕। सम्। ज्योति॑षा। अ॒भू॒म॒ ॥२५॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवि विष्णुर्व्यक्रँस्त जागतेन छन्दसा ततो निर्भक्तो योस्मान्द्वेष्टि यञ्च वयन्द्विष्मोन्तरिक्षे विष्णुर्व्यक्रँस्त त्रैषटुभेन छन्दसा ततो निर्भक्तो योस्मान्द्वेष्टि यञ्च वयन्द्विष्मः पृथिव्याँ विष्णुर्व्यक्रँस्त गायत्रेण छन्दसा ततो निर्भक्तो योस्मान्द्वेष्टि यञ्च वयन्द्विष्मोस्मादन्नादस्यै प्रतिष्ठायाऽअगन्म स्वः सञ्ज्योतिषाभूम ॥
स्वर रहित पद पाठ
दिवि। विष्णुः। वि। अक्रꣳस्त। जागतेन। छन्दसा। ततः। निर्भक्त इति निःऽभक्तः। यः। अस्मान्। द्वेष्टि। यम्। च। वयम्। द्विष्मः। अन्तरिक्षे। विष्णुः। वि। अक्रꣳस्त। त्रैष्टुभेन। त्रैस्तुभेनेति त्रैस्तुभेन। छन्दसा। ततः। निर्भक्त इति निःऽभक्तः। यः। अस्मान्। द्वेष्टि। यम्। च। वयम्। द्विष्मः। पृथिव्याम्। विष्णुः। वि। अक्रꣳस्त। गायत्रेण। छन्दसा। ततः। निर्भक्त इति निःऽभक्तः। यः। अस्मान्। द्वेष्टि। यम्। च। वयम्। द्विष्मः। अस्मात्। अन्नात्। अस्यै। प्रतिष्ठायै। प्रतिस्थाया इति प्रतिऽस्थायै। अगन्म। स्वरिति स्वः। सम्। ज्योतिषा। अभूम॥२५॥
विषय - वह यज्ञ तीनों लोक में विस्तृत होकर क्या क्या सुख सिद्ध करता है, यह उपदेश किया है।
भाषार्थ -
हमारे द्वारा (जागतेन) सब लोकों को सुख देने वाले (छन्दसा) आनन्दकारी जगती-छन्द के द्वारा किया हुआ यह यज्ञ (विष्णुः) जो अन्तरिक्ष में स्थित जल, वायु आदि पदार्थों में व्याप्त है, वह यज्ञ (दिवि) द्युलोक में (वि अक्रन्स्त) विविध प्रकार से विचरता है, फिर वह (ततः) उस द्युलोक से (निर्भक्तः) पृथक् होकर आनन्द से सब जगत् को तृप्त कर देता है। और (यः) जो शत्रु (अस्मान्) हम यज्ञ करने वालों से (द्वेष्टि) विरोध करता है, (यम् च) और शासन में रखने योग्य जिस दुष्ट प्राणी से (वयम्) यज्ञादि शुभ कर्म करने हारे (द्विष्मः) विरोध करते हैं, उसे इस यज्ञ से दूर करते हैं।
हमारे द्वारा जो (विष्णुः) यज्ञ (त्रैष्टुभेन) तीन प्रकार के सुखों के निमित्त (छन्दसा) स्वतन्त्रता प्रदान करने वाले त्रिष्टुप्-छन्द से अग्नि के प्रयोग करने पर (अन्तरिक्षे) आकाश में (व्यक्रंस्त) विविधगति करता है, वह फिर (तत्) उस अन्तरिक्ष स्थान से (निर्भक्तः) पृथक् होकर वायु और वर्षा जल की शुद्धि के द्वारा सब जगत् को सुखी बनाता है और (यः) जो कष्ट देने वाला प्राणी (अस्मान्) सबका उपकार करने वाले हम लोगों को (द्वेष्टि) दुःख देता है, और (यम्) जिस सबका अहित चाहने वाले को (वयम्) सबके हितकारी हम लोग (द्विष्मः) पीड़ा देते हैं, उसको इस यज्ञ से हटाते हैं।
हमारे द्वारा जो यह (विष्णुः) यज्ञ (गायत्रेण) संसार की रक्षा करने वाले (छन्दसा) आनन्ददायक गायत्री छन्द से (पृथिव्याम्) इस विशाल भूमि में किया जाता है, वह पृथिवी पर (व्यक्रंस्त) विविध सुख प्राप्ति का निमित्त बन कर फैलाता है। वह (ततः) उस पृथिवी-स्थान से (निर्भक्तः) पृथक् होकर आकाश में पहुँचकर पृथिवी के पदार्थों को पुष्ट करता है। (यः) जो हमारे राज्य का शत्रु (अस्मान्) हम न्यायाधीशों से (द्वेष्टि) वैर करता है, और (यम् च) जिस शत्रु से (वयम्) हम राज्य के स्वामी (द्विष्मः) वैर करते हैं उसको इस यज्ञ से रोकते हैं।
हम (अस्मात्) इस प्रत्यक्ष यज्ञ के शुद्ध किए (अन्नात्) भक्षण-योग्य अन्न से (स्वः) सुख को (अगन्म) प्राप्त करते हैं।
हमने इस यज्ञ से (अस्यै) इस प्रत्यक्ष-प्राप्त (प्रतिष्ठायै) सम्मान के लिए (ज्योतिषा) विद्या और धर्म का प्रकाश करने वाले परमेश्वर के साथ (समभूम्) सदा संगत रहें॥ २।२५॥
भावार्थ -
मनुष्य, जितने सुगन्धि आदि गुणों से युक्त पदार्थ अग्नि में डालते हैं व सूक्ष्म होकर, सूर्य-प्रकाश, आकाश और भूमि में विचरण कर सब सुखों को सिद्ध करते हैं।
और--जो वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, आदि पदार्थ शिल्प विद्या से सिद्ध किये कलायन्त्रों से विमानादि यानों में प्रयुक्त किये जाते हैं, वे सूर्य प्रकाश और अन्तरिक्ष में सब प्राणियों को सुख से विहार कराते हैं।
जो पदार्थ सूर्य किरण एवं अग्नि के द्वारा सूक्ष्म होकर आकाश में, फिर वही द्रव्य भूमि पर आकर फिर भूमि से ऊपर जाकर, फिर वहाँ से आता है।
इस प्रकार बार-बार इस विधि से मनुष्य पुरुषार्थ के द्वारा दोषों, दुःखों और शत्रुओं को अच्छी प्रकार निवारण करके सुख का उपभोग करें और करावें। यज्ञ से शुद्ध किये वायु, जल, औषधि और अन्न से आरोग्य, बुद्धि और शारीरिक बल बढ़ाकर, महान् सुख प्राप्त करके विद्या के प्रकाश से नित्य प्रतिष्ठा को प्राप्त करें॥२।२५॥
भाष्यसार -
१. द्युलोक में विस्तृत यज्ञ--तीनों लोकों में व्यापक होने से यहाँ यज्ञ को विष्णु कहा है। द्युलोक में व्याप्त यज्ञ वहाँ से विस्तृत होकर सब जगत् को तृप्त करता है। जो द्युलोक सम्बन्धी पीड़ाएँ हैं, उन्हें यज्ञ दूर करता है।
२. अन्तरिक्ष में विस्तृत यज्ञ--अन्तरिक्ष लोक में व्याप्त यज्ञ वायु को तथा वर्षा जल को शुद्ध करता है। जो अन्तरिक्ष सम्बन्धी कष्ट हैं , उन्हें दूर हटाता है।
३.भूलोक में विस्तृत यज्ञ--पृथिवी में व्याप्त यज्ञ पृथिवीस्थ पदार्थों को पुष्ट करता है, पृथिवीस्थ दोष, दुःख और शत्रुओं को दूर हटाता है। यज्ञ से पृथिवी पर अन्न उत्पन्न होता है जिससे सब सुखों की प्राप्ति होती है।
४. यज्ञ से प्रतिष्ठा--यज्ञ से विद्या और धर्म का प्रकाश प्राप्त होता है। जिससे प्रतिष्ठा की उपलब्धि होती है।
विशेष -
वामदेवः। विष्णुः=यज्ञः॥ दिवीत्यारभ्य द्विष्म इत्यन्तस्य निचृदार्ची पंक्तिः तथाऽन्तरिक्षमित्यारभ्य द्विष्मः पर्य्यन्तस्यार्ची पंक्तिः। पंचमः। पृथिव्यामित्यारभ्यान्तपर्य्यन्तस्य भुरिग् जगती। निषादः॥
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal