अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
सूक्त - दुःस्वप्ननासन
देवता - साम्नी अनुष्टुप्
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
दे॒वाना॑मेनंघो॒रैः क्रू॒रैः प्रै॒षैर॑भि॒प्रेष्या॑मि ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वाना॑म् । ए॒न॒म् । घो॒रै: । क्रू॒रै: । प्र॒ऽए॒षै: । अ॒भि॒ऽप्रेष्या॑मि ॥७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
देवानामेनंघोरैः क्रूरैः प्रैषैरभिप्रेष्यामि ॥
स्वर रहित पद पाठदेवानाम् । एनम् । घोरै: । क्रूरै: । प्रऽएषै: । अभिऽप्रेष्यामि ॥७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
विषय - द्वेष से विनाश
पदार्थ -
१. पञ्चम मन्त्र में कहेंगे कि 'योऽस्मान् दृष्टि'-जो हमारे साथ द्वेष करता है, (तेन) = उस हेतु से अथवा उस द्वेष से (एनं विध्यामि) = इस द्वेष करनेवाले को ही विद्ध करता हूँ। द्वेष करनेवाला स्वयं ही उस द्वेष का शिकार हो जाता है। (अभूत्या एनं विव्यामि) = शक्ति के अभाव से, शक्ति के विनाश से, इस द्वेष करनेवाले को विद्ध करता हूँ।(निर्भूत्या एनं विध्यामि) = ऐश्वर्य विनाश से इसको विद्ध करता हूँ। (पराभूत्या एनं विध्यामि) = पराजय से इसे विद्ध करता हूँ। (ग्राह्याः एनं विध्यामि) = जकड़ लेनेवाले रोग से इसे बिद्ध करता हूँ। (तमसा एनं विध्यामि) = अन्धकार से इसे विद्ध करता हूँ। यह द्वेष करनेवाला 'अभूति' इत्यादि से पीड़ित होता है। २. (एनं) = इस द्वेष करनेवाले को (देवानाम्) = विषयों की प्रकाशक इन्द्रियों की (घोंरैः) भयंकर (क्रूरैः) = [undesirable] अवाञ्छनीय (प्रैषै:) = [erushing] विकृतियों से (अभिप्रेष्यामि) = अभिक्षित [Hurt] करता हूँ। द्वेष करनेवाले की इन्द्रियों में अवाञ्छनीय विकार उत्पन्न हो जाते हैं। ३. (वैश्वानरस्य) = उन सब मनुष्यों का हित करनेवाले प्रभु की (दंष्ट्रयो:) = दाढ़ों में न्याय के जबड़ों में (एनं अपिदधामि) = इस द्वेष करनेवाले को पिहित [ऊद] कर देता हूँ। ४. (सा) = वह उल्लिखित मन्त्रों में वर्णित 'अभूति निर्भूति०' इत्यादि बातें (एवा) = इसप्रकार शक्ति व ऐश्वर्य के विनाश के द्वारा या (अनेव) = किसी अन्य प्रकार से (अवगरत्) = इस द्वेष करनेवाले को निगल जाए।
भावार्थ - द्वेष करनेवाला व्यक्ति 'अभूति' आदि से विद्ध होकर इन्द्रियों की विकृति का शिकार होता है। यह प्रभु से भी दण्डनीय होता है। यह द्वेष की भावना किसी-न-किसी प्रकार इसे ही निगल जाती है।
इस भाष्य को एडिट करें