अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 7/ मन्त्र 6
सूक्त - दुःस्वप्ननासन
देवता - साम्नी बृहती
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
निर्द्वि॒षन्तं॑दि॒वो निः पृ॑थि॒व्या निर॒न्तरि॑क्षाद्भजाम ॥
स्वर सहित पद पाठनि: । द्वि॒षन्त॑म् । दि॒व: । नि: । पृ॒थि॒व्या: । नि: । अ॒न्तरि॑क्षात् । भ॒जा॒म॒ ॥७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
निर्द्विषन्तंदिवो निः पृथिव्या निरन्तरिक्षाद्भजाम ॥
स्वर रहित पद पाठनि: । द्विषन्तम् । दिव: । नि: । पृथिव्या: । नि: । अन्तरिक्षात् । भजाम ॥७.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 7; मन्त्र » 6
विषय - समाज-विद्वेष-आत्मविद्वेष
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (यः) = जो (अस्मान् द्वेष्टि) = हम सबके प्रति द्वेष करता है, (तम्) = उसको (आत्मा द्वेष्टु) = आत्मा प्रीति न करनेवाला हो। (यं वयं द्विष्मः) = जिसको हम सब प्रीति नहीं कर पाते (सः आत्मानं द्वेष्टु) = वह अपने से प्रीति करनेवाला न हो। वस्तुत: जो एक व्यक्ति सारे समाज के प्रति प्रीतिवाला न होकर स्वार्थसिद्धि को ही महत्त्व देता है, वह सारे समाज का अप्रिय होकर अन्तत: अपनी ही दुर्गति कर बैठता है। यह समाजविद्वेष आत्म-अवनति का मार्ग है, अत: यह समाज के प्रति द्वेष करनेवाला व्यक्ति आत्मा का ही द्वेष कर रहा होता है। २. (द्विषन्तम्) = इस द्वेष करनेवाले को (दिवः निर्भजाम) = द्युलोक से दूर भगा दें[भज to put to flight]| केवल धुलोक से ही नहीं, (पृथिव्या निर्) [भजाम] = पृथिवीलोक से भी भगा दें तथा (अन्तरिक्षात् नि:) = अन्तरिक्ष से भी दूर भगा दें। इस द्वेष करनेवाले का इस त्रिलोकी में स्थान न हो। त्रिलोकी में कोई भी इसका न हो। त्रिलोकी से दूर भगाने का यह भी भाव है कि इसका मस्तिष्क. [धुलोक], हृदय [अन्तरिक्ष] व शरीर [पृथिवी] सभी विकृत हो जाएँ। इसके मस्तिष्क हृदय व शरीर की शक्ति का भंग हो जाए। द्वेष का यह परिणाम स्वाभाविक है।
भावार्थ - समाजविद्वेष्य पुरुष वस्तुत: आत्मा की अवनति करता हुआ अपने से ही द्वेष करता है। इसके लिए त्रिलोकी में स्थान नहीं रहता। यह 'शरीर, मन व मस्तिष्क' सभी को विकृत कर लेता है।
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