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अथर्ववेद > काण्ड 16 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 7/ मन्त्र 8
    सूक्त - दुःस्वप्ननासन देवता - प्राजापत्या बृहती छन्दः - यम सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त

    इ॒दम॒हमा॑मुष्याय॒णे॒मुष्याः॑ पु॒त्रे दुः॒ष्वप्न्यं॑ मृजे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । अ॒हम् । आ॒मु॒ष्या॒य॒णे । अ॒मुष्या॑: । पु॒त्रे । दु॒:ऽस्वप्न्य॑म् । मृ॒जे॒ ॥७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदमहमामुष्यायणेमुष्याः पुत्रे दुःष्वप्न्यं मृजे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । अहम् । आमुष्यायणे । अमुष्या: । पुत्रे । दु:ऽस्वप्न्यम् । मृजे ॥७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 7; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    १. मनुष्य को चाहिए कि वह द्वेष की भावना से ऊपर उठकर आत्महित का साधन करे। इस साधक को सम्बोधन करते हुए प्रभु कहते हैं कि है (सुयामन्) = सम्यक् नियमन करनेवाले। और अतएव (चाक्षुष) = आत्मनिरीक्षण करनेवाले पुरुष! २. (अहम्) = मैं (आमुष्यायणे) = [well-born] तेरे-जैसे कुलीन पुरुष के जीवन में (अमुष्याः पुत्रे) = एक कुलीन माता के पुत्र में (इदं दुःष्वप्न्यम्) = इस दुष्ट स्वप्न के कारणभूत रोग, अशक्ति व अनैश्वर्य आदि को (मृजे) = शुद्धकर डालता हूँ। इन अभूति आदि को नष्ट कर देता है।

    भावार्थ - प्रभु अपने पुत्र जीव को इस रूप में सम्बोधित करते हैं कि तूने जीवन का नियमन करना है और आत्मनिरीक्षण करनेवाला बनना है। तू अपने को कुलीन प्रमाणित करना। माता के सुपुत्र तुझमें सब दुष्ट स्वप्नों के कारणभूत अभूति आदि को मैं विनष्ट किये देता है।

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