अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 7/ मन्त्र 12
सूक्त - दुःस्वप्ननासन
देवता - भुरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
तं ज॑हि॒ तेन॑मन्दस्व॒ तस्य॑ पृ॒ष्टीरपि॑ शृणीहि ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ज॒हि॒ । तेन॑ । म॒न्द॒स्य॒ । तस्य॑ । पृ॒ष्टी: । अपि॑ । शृ॒ण॒हि॒ ॥७.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
तं जहि तेनमन्दस्व तस्य पृष्टीरपि शृणीहि ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । जहि । तेन । मन्दस्य । तस्य । पृष्टी: । अपि । शृणहि ॥७.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 7; मन्त्र » 12
विषय - प्रभु का आदेश
पदार्थ -
१. दोषविनाश के लिए पुत्र द्वारा की गई प्रतिज्ञा को सुनकर प्रभु उसे उत्साहित करते हुए कहते हैं कि (तं जहि) = उस दोष को नष्ट कर डाल और (तेन) = उस दोषविनाश से (मन्दस्व) = आनन्द का अनुभव कर । तुझे दोषविनाश में ही आनन्द प्राप्त हो। (तस्य) = उस दोष की, (पृष्टी: अपि) = पसलियों को भी (शृणीहि) = नष्ट कर डाल। २. (स: मा जीवीत्) = वह मत जीवे। (तं प्राणो जहातु) = उसको प्राण छोड़ जाए। यहाँ दोष को पुरुषविध कल्पित करके उसे विनष्ट करने का उपदेश दिया गया है।
भावार्थ - परमपिता प्रभु उपदेश देते हैं कि हे जीव! तू दोषविनाश में ही आनन्द लेनेवाला बन। दोषरूप पुरुष को पसलियों को तोड़ दे, उसे निष्प्राण कर दे।
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