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अथर्ववेद > काण्ड 16 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 7/ मन्त्र 5
    सूक्त - दुःस्वप्ननासन देवता - आर्ची उष्णिक् छन्दः - यम सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त

    योस्मान्द्वेष्टि॒ तमा॒त्मा द्वे॑ष्टु॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः स आ॒त्मानं॑ द्वेष्टु॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । तम् । आ॒त्मा । द्वे॒ष्टु॒ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । स: । आ॒त्मान॑म् । द्वे॒ष्टु॒ ॥७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योस्मान्द्वेष्टि तमात्मा द्वेष्टु यं वयं द्विष्मः स आत्मानं द्वेष्टु॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अस्मान् । द्वेष्टि । तम् । आत्मा । द्वेष्टु । यम् । वयम् । द्विष्म: । स: । आत्मानम् । द्वेष्टु ॥७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 7; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. हे प्रभो! (यः) = जो (अस्मान् द्वेष्टि) = हम सबके प्रति द्वेष करता है, (तम्) = उसको (आत्मा द्वेष्टु) = आत्मा प्रीति न करनेवाला हो। (यं वयं द्विष्मः) = जिसको हम सब प्रीति नहीं कर पाते (सः आत्मानं द्वेष्टु) = वह अपने से प्रीति करनेवाला न हो। वस्तुत: जो एक व्यक्ति सारे समाज के प्रति प्रीतिवाला न होकर स्वार्थसिद्धि को ही महत्त्व देता है, वह सारे समाज का अप्रिय होकर अन्तत: अपनी ही दुर्गति कर बैठता है। यह समाजविद्वेष आत्म-अवनति का मार्ग है, अत: यह समाज के प्रति द्वेष करनेवाला व्यक्ति आत्मा का ही द्वेष कर रहा होता है। २. (द्विषन्तम्) = इस द्वेष करनेवाले को (दिवः निर्भजाम) = द्युलोक से दूर भगा दें[भज to put to flight]| केवल धुलोक से ही नहीं, (पृथिव्या निर्) [भजाम] = पृथिवीलोक से भी भगा दें तथा (अन्तरिक्षात् नि:) = अन्तरिक्ष से भी दूर भगा दें। इस द्वेष करनेवाले का इस त्रिलोकी में स्थान न हो। त्रिलोकी में कोई भी इसका न हो। त्रिलोकी से दूर भगाने का यह भी भाव है कि इसका मस्तिष्क. [धुलोक], हृदय [अन्तरिक्ष] व शरीर [पृथिवी] सभी विकृत हो जाएँ। इसके मस्तिष्क हृदय व शरीर की शक्ति का भंग हो जाए। द्वेष का यह परिणाम स्वाभाविक है।

    भावार्थ - समाजविद्वेष्य पुरुष वस्तुत: आत्मा की अवनति करता हुआ अपने से ही द्वेष करता है। इसके लिए त्रिलोकी में स्थान नहीं रहता। यह 'शरीर, मन व मस्तिष्क' सभी को विकृत कर लेता है।

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