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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 131 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 131/ मन्त्र 2
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - मध्यमः

    विश्वे॑षु॒ हि त्वा॒ सव॑नेषु तु॒ञ्जते॑ समा॒नमेकं॒ वृष॑मण्यव॒: पृथ॒क्स्व॑: सनि॒ष्यव॒: पृथ॑क्। तं त्वा॒ नावं॒ न प॒र्षणिं॑ शू॒षस्य॑ धु॒रि धी॑महि। इन्द्रं॒ न य॒ज्ञैश्चि॒तय॑न्त आ॒यव॒: स्तोमे॑भि॒रिन्द्र॑मा॒यव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वे॑षु । हि । त्वा॒ । सव॑नेषु । तु॒ञ्जते॑ । स॒मा॒नम् । एक॑म् । वृष॑ऽमन्यवः । पृथ॑क् । स्वरिति॑ स्वः॑ । स॒नि॒ष्यवः॑ । पृथ॑क् । तम् । त्वा॒ । नाव॑म् । न । प॒र्षणि॑म् । शू॒षस्य॑ । धु॒रि । धी॒म॒हि॒ । इन्द्र॑म् । न । य॒ज्ञैः । चि॒तय॑न्तः । आ॒यवः॑ । स्तोमे॑भिः । इन्द्र॑म् । आ॒यवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वेषु हि त्वा सवनेषु तुञ्जते समानमेकं वृषमण्यव: पृथक्स्व: सनिष्यव: पृथक्। तं त्वा नावं न पर्षणिं शूषस्य धुरि धीमहि। इन्द्रं न यज्ञैश्चितयन्त आयव: स्तोमेभिरिन्द्रमायव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वेषु। हि। त्वा। सवनेषु। तुञ्जते। समानम्। एकम्। वृषऽमन्यवः। पृथक्। स्व१रिति स्वः। सनिष्यवः। पृथक्। तम्। त्वा। नावम्। न। पर्षणिम्। शूषस्य। धुरि। धीमहि। इन्द्रम्। न। यज्ञैः। चितयन्तः। आयवः। स्तोमेभिः। इन्द्रम्। आयवः ॥ १.१३१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 131; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः परमात्मैवोपासनीय इत्याह ।

    अन्वयः

    हे परमेश्वर पृथक् पृथक् सनिष्यवो वृषमण्यवो वयं यं समानमेकं स्वस्त्वा विश्वेषु सवनेषु विद्वांसो यथा तुञ्जते पालयन्ति तथा हि तं त्वा शूषस्य धुरि पर्षणिं नावं न धीमहि इन्द्रमायव इव यज्ञैरिन्द्रं न चितयन्त आयवो वयं स्तोमेभिश्च प्रशंसेव ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (विश्वेषु) सर्वेषु (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (सवनेषु) ऐश्वर्येषु (तुञ्जते) तुञ्जन्ति पालयन्ति। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदमेकवचनं च। (समानम्) सर्वत्रैव स्वव्याप्त्यैकरसम् (एकम्) अद्वितीयमसहायम् (वृषमण्यवः) वृषस्य मन्युरिव मन्युर्येषां ते (पृथक्) (स्वः) सुखस्वरूपम् (सनिष्यवः) संभजमानाः (पृथक्) (तम्) (त्वा) त्वाम् (नावम्) (न) इव (पर्षणिम्) सेचनीयाम् (शूषस्य) बलवतः (धुरि) धारके काष्ठे (धीमहि) धरेम। अत्र डुधाञ् धातोर्लिङि छन्दस्युभयथेति शब्भाव आर्द्धधातुकत्वादीत्वम्। (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (न) इव (यज्ञैः) विद्वत्सङ्गसेवनैः (चितयन्तः) संचेतयन्तः। अत्र वाच्छन्दसीत्युपधागुणो न। (आयवः) ये पुरुषार्थं यन्ति ते मनुष्याः (स्तोमेभिः) स्तुतिभिः (इन्द्रम्) परमैश्वर्यकारकं सूर्यम् (आयवः) ये सूर्यमभितो यन्ति ते लोकाः ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्विद्वांसोऽयं सच्चिदानन्दं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सर्वत्रैकरसव्यापिनं सर्वाधारं सर्वैश्वर्यप्रदमेकमद्वैतं परमात्मानमुपासते स एव निरन्तरमुपासनीयः ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को परमात्मा की ही उपासना करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे परमेश्वर ! (पृथक् पृथक्) अलग-अलग (सनिष्यवः) उत्तमता से सेवनवाले (वृषमण्यवः) जिनका बैल के क्रोध के समान क्रोध वे हम लोग जिन (समानम्) सर्वत्र एकरस व्याप्त (एकम्) जिसका दूसरा कोई सहायक नहीं उन (स्वः) सुखस्वरूप (त्वा) आपको (विश्वेषु) समग्र (सवनेषु) ऐश्वर्य आदि पदार्थों में विद्वान् लोग जैसे (तुञ्जते) राखते अर्थात् मानते-जानते हैं, वैसे (हि) ही (तम्) उन (त्वा) आपको (शूषस्य) बलवान् पुरुष के (धुरि) धारण करनेवाले काठ पर (पर्षणिम्) सींचने योग्य (नावम्) नाव के (न) समान (धीमहि) धारण करें वा (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य करानेवाले सूर्यमण्डल को जैसे उसके (आयवः) चारों ओर घूमते हुए लोक वैसे वा जैसे (यज्ञैः) विद्वानों के सङ्ग और सेवनों से (इन्द्रम्) परमऐश्वर्य को (न) वैसे (चितयन्तः) अच्छे प्रकार चिन्तन करते हुए (आयवः) पुरुषार्थ को प्राप्त होनेवाले हम लोग (स्तोमेभिः) स्तुतियों से आपकी प्रशंसा करें ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि विद्वान् जन जिस सच्चिदानन्दस्वरूप नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्तस्वभाव, सर्वत्र एकरसव्यापी, सबका आधार, सब ऐश्वर्य देनेवाले एक अद्वैत (कि जिसकी तुल्यता का दूसरा नहीं) परमात्मा की उपासना करते, वही निरन्तर सबको उपासना करने योग्य है ॥ २ ॥

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    विषय

    यज्ञों व स्तोमों से प्रभुदर्शन

    पदार्थ

    १.हे प्रभो! (वृषमण्यवः) = आपको ही सब सुखों का वर्षक जानने वाले लोग (हि) = निश्चय से (विश्वेषु) = सब (सवनेषु) = यज्ञों में आपके प्रति अपने को (तुजते) = दे डालते हैं । इन सब यज्ञों को आपसे ही होता हुआ वे देखते हैं । ये सब (पृथक्) = अलग - अलग (स्वः सनिष्यवः) = सुख व प्रकाश को प्राप्त करने की कामनावाले (पृथक्) = अलग-अलग होते हुए भी ये लोग (समानम्) = सबके प्रति समान (एकम्) = अद्वितीय आपके ही प्रति अपने को देनेवाले होते हैं । सब प्रभु के प्रति अपना अर्पण करते हैं, उसी की शक्ति से तो वे अपने यज्ञादि कार्यों को सिद्ध करनेवाले होते हैं । २. (नावं न पर्षणिम्) = नाव के समान इस (भव) = सागर से पार लगानेवाले (तं त्वा) = उन आपको ही (शूषस्य धुरि) = सब सुखों [३ । ६ नि०] व बलों [२ । ९ नि०] की धुरि के रूप में (धीमहि) = धारण करते हैं । आप ही सब शक्तियों के देनेवाले हैं और शक्ति के द्वारा सुखों को प्राप्त करानेवाले हैं । इस संसार-समुद्र में डूबना ही सब दुःखों का मूल है । इसे पार करने की शक्ति प्रभु की उपासना से ही प्राप्त होती है । एवं, प्रभु ही हमारे लिए भव-सागर को पार करने में नाव बनते हैं । ३. (आयवः) = क्रियाशील मनुष्य (यज्ञैः) = देवपूजा, संगतिकरण व दानरूप धर्मों से (इन्द्रं न) = [न शब्दः एवकारार्थः - सा०] उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को ही (चितयन्तः) = अपने में चेताने के लिए यत्नशील होते हैं । (आयवः) ये क्रियाशील मनुष्य (स्तोमेभिः) = स्तुतिसमूहों से (इन्द्रम्) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु को अपने हृदयों में प्रवृद्ध करते हैं । यज्ञों व स्तोमों ही से तो हम प्रभु-दर्शन के योग्य बनते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - यज्ञ करना और उन्हें प्रभु के प्रति अर्पण करना ही मोक्ष व सुख - प्राप्ति का साधन है । प्रभु ही हमें सुख व शक्तियों को प्राप्त कराते हैं, वे ही भवसागर से तराते हैं । यज्ञों व स्तोमों से प्रभुदर्शन होता है ।

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    विषय

    सूर्यवत् राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे राजन् ( वृषमन्यवः ) तुझको ही एकमात्र बलवान्, सब ऐश्वर्यों का वर्षक मानते हुए या स्वयं महा वृषभ के समान क्रोध से प्रतिस्पर्द्धाशील वीर पुरुष ( पृथक् पृथक् ) पृथक् पृथक् ( स्वः ) सुखमय राज्य को ( सनिष्यवः ) स्वयं भोगने की कामना से युक्त होकर भी ( विश्वेषु सवनेषु ) समस्त ऐश्वर्यों और शासन कार्यों पर भी ( एकं समानं त्वा हि ) एक समान निष्पक्षपात तुझको ही ( तुञ्जते ) प्रतिपालन करते हैं, तेरी ही आज्ञा और अनुमति की ही प्रतीक्षा करते हैं । ( पर्षणि नावं न ) नदी से पार पहुंचा देने वाली नाव के समान (त्वा तं) उस तुझको ही ( शूषस्य धुरि ) बल के धारण करने के प्रमुख पद पर संग्राम सागर से पार करने वाले एवं पालन योग्य अन्नादि के दाता रूप से ( धीमहि ) धारण करें । ( आयवः ) ज्ञान और पुरुषार्थ को प्राप्त होने वाले ( चितयन्तः ) ज्ञानोपार्जक पुरुष ( यज्ञैः ) दान योग्य द्रव्यों से ( इन्द्रं न ) जिस प्रकार आचार्य को सन्तुष्ट करते हैं उसी प्रकार ( आयवः ) पुरुषार्थी लोग ( इन्द्रं ) राजा को भी ( यज्ञैः ) दान योग्य ऐश्वर्यों से और ( स्तोमेभिः ) स्तुति योग्य वचनों तथा सेना समूहों से ( इन्द्रम् ) उस राजा को अपने में धारण करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेष ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १, २ निचृदत्यष्टिः । ४ विराडत्यष्टिः । ३, ५, ६, ७ भुरिगष्टिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. विद्वान लोक ज्या सच्चिदानंदस्वरूप नित्य शुद्ध, बुद्ध व मुक्त स्वभाव, सर्वत्र एकरस व्यापी, सर्वांचा आधार, सर्व ऐश्वर्य देणाऱ्या एका अद्वैत (जो तुलनीय नाही) परमात्म्याची उपासना करतात तोच उपासना करण्यायोग्य आहे, हे माणसांनी जाणावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    In all their yajnic projects of creation and development and in their acts of piety, all the liberal minded people and all seekers of heavenly bliss serve you and abide by you, sole one universal lord of existence, individually as well as together. To the same one lord we too belong, and we too love, meditate on and serve you, lord, with faith as the very centre of cosmic energy and as the saviour ship for crossing over the ocean of existence. All the people bom and living on earth in their mortal existence and all the stars and planets in their songs and dance of adoration serve and worship the Lord as Indra, light of the world like the sun.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who should be adored by all is told in the Second Mantra

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God, possessing righteous indignation like mighty persons, worshipping Thee individually, we also adore Thee Collectively in all Yajnas and on the occasions of getting all prosperity, as Thou art ever the same, pervading all equally One and One only. We meditate on Thee, the Sustainer of our strength, like a boat that bears passengers across a stream; we mortals being industrious, propitiate or please Thee with Yajnas in the form of association with and service of the wise enlightened persons. We adore Thee, who art giver of all great wealth and art the Sun of the suns. We always sing hymns in Thy praise.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( तुंजते ) तुंजन्ति पालयन्ति = Protect. यज्ञैः ) विद्वत्संगसेवनैः = By the association of the wise and their service. (आयवः ) ये पुरुषार्थयन्ति ते मनुष्याः = Industrious men. (शूषस्य) बलवत: = Of the mighty

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should adore and have communion with that God whom all wise learned persons worship and who has absolute existence, absolute consciousness and absolute Bliss, who is eternal, ever pure and ever free, who pervades all the beings and things of the world, who is Support of all and Giver of all wealth (Spiritual as well as material) who is one and only one.

    Translator's Notes

    तुजि-पालने भ्वा० यज-देवपूजा संगतिकररगदानेषु भ्वा आयव इति मनुष्यनाम (निघ० २.३ ) शूषमिति बलनाम (निघ० २.९ ) | Even Sayanacharya has admitted in his commentary on this Mantra while explaining वित्वा ततस्त्रे मिथुना that यद्यपि स्त्रिया नास्ति पृथगधिकारस्तथापिपूर्वमीमांसायां षष्ठेऽधिकाराध्याये तृतीयचतुर्थाभ्यामधिकरणाभ्याम् अस्त्येव स्त्रिया अधिकार: सच पत्या सहैति प्रपंचितत्वात् जायापती अग्निमादधीयातामित्याधानविधानात् स्मृतिषु च “नास्ति स्त्रीणां पृथग् यज्ञो न व्रतम् (मनु० ५.१५५) इति पृथगधिकारस्यैव निवारितत्वादस्त्येव स्त्रियाः पत्या सहाधिकारः । अध्ययनाभावेऽपि वेदमस्यैप्रदाय वाचयेत् (आश्वलायन गृह्यसूत्रे १.११ ) इति सूत्रकारवचनात् पत्न्यन्वास्ते इत्यादि विधिषु "सुप्रजसस्त्वावयम्" इति इत्यादि मन्त्रविधानाद् यत्र वचनमस्ति तत्रास्त्येव मन्त्रेऽधिकार: | that women have a right to study the Vedas, though he has not understood the full significance of the Mantra like ‘ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम् ।' (अथर्व० ११.६.१८ ) etc. where there is the mention of Brahmacharya (including the study of the Vedas ) for girls after which only they are entitled to marry.

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