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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 131 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 131/ मन्त्र 3
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः

    वि त्वा॑ ततस्रे मिथु॒ना अ॑व॒स्यवो॑ व्र॒जस्य॑ सा॒ता गव्य॑स्य नि॒:सृज॒: सक्ष॑न्त इन्द्र नि॒:सृज॑:। यद्ग॒व्यन्ता॒ द्वा जना॒ स्व१॒॑र्यन्ता॑ स॒मूह॑सि। आ॒विष्करि॑क्र॒द्वृष॑णं सचा॒भुवं॒ वज्र॑मिन्द्र सचा॒भुव॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । त्वा॒ । त॒त॒स्रे॒ । मि॒थु॒नाः । अ॒व॒स्यवः॑ । व्र॒जस्य॑ । सा॒ता । गव्य॑स्य । निः॒ऽसृजः॑ । सक्ष॑न्तः । इ॒न्द्र॒ । निः॒ऽसृजः॑ । यत् । ग॒व्यन्ता॑ । द्वा । जना॑ । स्वः॑ । यन्ता॑ । स॒म्ऽऊह॑सि । आ॒विः । करि॑क्रत् । वृष॑णम् । स॒चा॒ऽभुवम् । वज्र॑म् । इ॒न्द्र॒ । स॒चा॒ऽभुव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि त्वा ततस्रे मिथुना अवस्यवो व्रजस्य साता गव्यस्य नि:सृज: सक्षन्त इन्द्र नि:सृज:। यद्गव्यन्ता द्वा जना स्व१र्यन्ता समूहसि। आविष्करिक्रद्वृषणं सचाभुवं वज्रमिन्द्र सचाभुवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि। त्वा। ततस्रे। मिथुनाः। अवस्यवः। व्रजस्य। साता। गव्यस्य। निःऽसृजः। सक्षन्तः। इन्द्र। निःऽसृजः। यत्। गव्यन्ता। द्वा। जना। स्वः। यन्ता। सम्ऽऊहसि। आविः। करिक्रत्। वृषणम्। सचाऽभुवम्। वज्रम्। इन्द्र। सचाऽभुवम् ॥ १.१३१.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 131; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सर्वैः क उपासनीय इत्याह ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र सक्षन्तो निःसृजोवस्यवो निःसृजो मिथुना त्वा प्राप्य व्रजस्य गव्यस्य सातेव दुःखानि विततस्रे। हे इन्द्र यद्यौ गव्यन्ता द्वा स्वर्यन्ता जना आविष्करिक्रत्सँस्त्वं समूहसि तं सचाभुवं वज्रं वृषणं सचाभुवं त्वा तौ नित्यमुपासेताम् ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (वि) (त्वा) त्वां जगदीश्वरम् (ततस्रे) तस्यन्ति दुःखान्युपक्षयन्ति (मिथुना) मिथुनानि स्त्रीपुरुषाख्यद्वन्द्वानि (अवस्यवः) आत्मनोऽवमिच्छवः (व्रजस्य) व्रजितुं गन्तुं योग्यस्य (साता) सम्यक् सेवने (गव्यस्य) गोभ्यो हितस्य (निःसृजः) नितरां सृजन्तः निष्पादयन्तः (सक्षन्तः) सहन्तः। अत्र सह धातोः पृषोदरादिवत्सकारागमः। (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (निःसृजः) नितरां संपन्नाः (यत्) यौ (गव्यन्ता) गौरिवाचरन्तौ (द्वा) द्वौ (जना) जनौ (स्वः) सुखस्वरूपम् (यन्ता) यन्तौ प्राप्नुवन्तौ (समूहसि) सम्यक् चेतयसि (आविः) प्राकट्ये (करिक्रत्) भृशं कुर्वन् (वृषणम्) सेचकन् (सचाभुवम्) यः समवाये भवति तम् (वज्रम्) दुष्टानां वज्रमिव दण्डप्रदम् (इन्द्र) दुःखविदारक (सचाभुवम्) सत्यं भावुकम् ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये पुरुषाः स्त्रियश्च सर्वस्य जगतः प्रकाशकं कर्त्तारं धर्त्तारं दातारं सर्वान्तर्यामिजगदीश्वरमेव सेवन्ते ते सततं सुखिनो भवन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर सबको किसकी उपासना करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमेश्वर्य्य के देनेहारे जगदीश्वर ! (सक्षन्तः) सहते हुए (निःसृजः) निरन्तर अनेकानेक व्यवहारों को उत्पन्न करने (अवस्यवः) और अपनी रक्षा चाहनेवाले (निःसृजः) अतीव सम्पन्न (मिथुना) स्त्री और पुरुष दो दो जने (त्वा) आपको प्राप्त होके (व्रजस्य) जाने योग्य (गव्यस्य) गौओं के लिये हित करनेवाले अर्थात् जिसमें आराम पाने को गौएँ जातीं उस गोड़ा आदि स्थान के (साता) सेवन में जैसे दुःख छुटें वैसे दुःखों को (विततस्रे) छोड़ते हैं। हे (इन्द्र) दुःखों का विनाश करनेवाले (यत्) जो (गव्यन्ता) गौओं के समान आचरण करते (द्वा) दो (स्वः) सुखस्वरूप आपको (यन्ता) प्राप्त होते हुए (जना) स्त्री-पुरुषों को (आविष्करिकत्) प्रकट करते हुए आप (समूहसि) उनको अच्छे प्रकार चेतना देते हो, उन (सचाभुवम्) समवाय सम्बन्ध में प्रसिद्ध होते हुए (वज्रम्) दुष्टों को वज्र के समान दण्ड देने (वृषणम्) सबको सींचने (सचाभुवम्) और सत्य की भावना करानेवाले आपकी वे दोनों नित्य उपासना करें ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष और स्त्री सब जगत् को प्रकाशित करने, उत्पन्न करने, धारण करने और देनेवाले सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर ही का सेवन करते हैं, वे निरन्तर सुखी होते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    त्याग व प्रभुपूजन

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! अवस्यवः अपने रक्षण की कामनावाले मिथुनाः - इन्हों के रूप में रहनेवाले पति - पत्नी त्वा - आपका लक्ष्य करके वि ततस्त्रे - [तस् - to reject] वासनाओं को नष्ट करने का प्रयत्न करते हैं । २. (गव्यस्य व्रजस्य) = इस इन्द्रियसमूह के (साता) = प्राप्ति के निमित्त निः सजः ये निश्चय से त्याग की वृत्तिवाले होते है, पापों को अपने से दूर करनेवाले होते हैं [पापं निर्गमयन्तः] । हे इन्द्र ! (सक्षन्तः) = आपका सेवन करते हुए ये (निः सृजः) = पाप को अपने से दूर करनेवाले होते हैं । ३. यत् - जब गव्यन्ता - [गौ - वेदवाक्] वेदवाणी की कामना करते हुए (द्वा जना) = दो लोगों को, अर्थात् पति-पत्नी को (स्वर्यन्ता) = स्वर्ग की ओर जाते हुओं को-जो अपने घर को स्वर्ग-समान बना रहे हैं, उनको (समूहसि) = आप सम्यक् धारण करते हो तो आप हे (इन्द्र) = प्रभो! (सचाभवम्) = सदा साथ रहनेवाले (वृषणम्) = शक्ति देनेवाले अथवा सुखों का वर्षण करनेवाले (वनम्) = क्रियाशीलतारूप वन को (आविष्करिक्रत्) = प्रकट करते हुए होते हो । उस क्रियाशीलता को जो कि (सचाभुवम्) = सदा साथ रहती है । इस क्रियाशीलता के द्वारा ही हम ज्ञान प्राप्त कर पाते हैं, अपनी शक्ति का वर्धन करनेवाले होते हैं और इस प्रकार अपने जीवन को स्वर्गोपम सुखवाला बना पाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - पति - पत्नी का मूल कर्तव्य त्याग व प्रभुपूजन है । क्रियाशीलता इन्हें स्वर्ग प्राप्त कराती है ।

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    विषय

    सूर्यवत् राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( अवस्यवः ) रक्षा चाहने वाले ( मिथुनाः ) स्त्री पुरुषों के जोड़े, अथवा शत्रु नाशक वीर जन ( निः सृजः ) निरन्तर वेग से जाते हुए अथवा सब प्रकार के कार्यों का सम्पादन करते हुए ( त्वा ) तुझे प्राप्त होकर ( वि ततस्त्रे ) विविध दुःखों को नाश करने में समर्थ होते हैं । वे ( निःसृजः ) सब प्रकार अपना आत्मोत्सर्ग करने हारे, (सक्षन्तः) सब कुछ सहने वाले होकर (गव्यस्य) गौओं के हितकारी ( व्रजस्य ) बाड़े के समान आश्रयप्रद ( गव्यस्य व्रजस्य ) लोकों को शरण रूप से प्राप्त होने योग्य आश्रय के ( साता ) लाभ के लिये ( त्वा ) तुझको प्राप्त होकर ( वि ततस्रे ) विशेष रूप से यत्न करते हैं । ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( यत् ) जब ( गव्यन्ता ) गौ आदि पशुओं की समृद्धि की कामना करने वाले, अथवा गो-मिथुन के समान आचरण करने वाले, एवं परस्पर अनुरूप, सर्वांग समान गुण होकर ( स्वः यन्ता ) सुख को प्राप्त होने वाले, अति सुखी ( द्वा जना ) दो जन स्त्री पुरुष गृहस्थ दम्पति को ( समूहसि ) भली प्रकार सुख सामग्री प्राप्त कराता उनको एकत्र रखता और उनको उत्तम ज्ञान प्रदान करता है तभी ( सचा भुवं ) परस्पर समभाव या मेल से उत्पन्न होने वाले ( वृषणं ) वर्षणशील मेघ और ( सचाभुवं वज्रम् ) उसके सहयोग से उत्पन्न विद्युत् के समान ही ( सचाभुवं वृषणं ) सहयोग से उत्पन्न होने वाले सुखों के वर्षण करने वाले बलवान् पुरुषों के बने सैन्य और ( सचाभुवं वज्रम् ) साथ होने वाले शस्त्रास्त्र बल वीर्य, पराक्रम को भी ( आविः करिक्रद् ) प्रकट करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेष ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १, २ निचृदत्यष्टिः । ४ विराडत्यष्टिः । ३, ५, ६, ७ भुरिगष्टिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे स्त्री-पुरुष सर्व जगाला प्रकाशित करणारा, उत्पन्न करणारा, धारण करणारा व देणारा अशा सर्वान्तर्यामी परमेश्वराचा अंगीकार करतात ते सदैव सुखी होतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of might and prosperity, wedded couples, keen for protection and advancement united with you and going out in pursuit of their efforts to promote the wealth of cows, development of land and related knowledge, extend your glory and eliminate their want and suffering, since you inspire and exhort both men and women going out and achieving the light and joy of life when you open out and wield for action the thunderbolt of justice and protection, so generous, promotive and friendly to you and the people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Men should always adore God is taught further in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Lord, we who worship Thee individually do also adore Thee Collectively desirous of protection. The married couples adore Thee and get rid of all misery, putting up bravely with all sorts of obstacles. They desire to serve the cattle and have noble refined speech and true delight. Thou givest them true knowledge. Thou displayest Thy thunderbolt of justice for the wicked, but showerest happiness upon Thy true devotees. Let all the couples always adore Thee sincerely, as Thou art showerer of peace and bliss and enablest Thy worshippers to attain Truth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ततस्त्रे ) तस्यन्ति-दुःखान्मुपक्षयन्ति - = Get rid of all misery.(तसु-उपक्षये निवा) Tr (सक्षन्तः) सहन्त: अत्र सह्यधातोः पृषोदरादित्वात् सकारागमः = Putting up bravely with all obstacles. (सचाभुवम् ) सत्यंभावुकम् = Enabling to attain Truth.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men and women always enjoy happiness who adore God, the Illuminator of the world, its creator, upholder, Giver of all objects and Omnipresent.

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