ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 131/ मन्त्र 4
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडत्यष्टिः
स्वरः - मध्यमः
वि॒दुष्टे॑ अ॒स्य वी॒र्य॑स्य पू॒रव॒: पुरो॒ यदि॑न्द्र॒ शार॑दीर॒वाति॑रः सासहा॒नो अ॒वाति॑रः। शास॒स्तमि॑न्द्र॒ मर्त्य॒मय॑ज्युं शवसस्पते। म॒हीम॑मुष्णाः पृथि॒वीमि॒मा अ॒पो म॑न्दसा॒न इ॒मा अ॒पः ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒दुः । ते॒ । अ॒स्य । वी॒र्य॑स्य । पू॒रवः॑ । पुरः॑ । यत् । इ॒न्द्र॒ । शार॑दीः । अ॒व॒ऽअति॑रः । स॒स॒हा॒नः । अ॒व॒ऽअति॑रः । शासः॑ । तम् । इ॒न्द्र॒ । मर्त्य॑म् । अय॑ज्युम् । श॒व॒सः॒ । प॒ते॒ । म॒हीम् । अ॒मु॒ष्णाः॒ । पृ॒थि॒वीम् । इ॒माः । अ॒पः । म॒न्द॒सा॒नः । इ॒माः । अ॒पः ॥
स्वर रहित मन्त्र
विदुष्टे अस्य वीर्यस्य पूरव: पुरो यदिन्द्र शारदीरवातिरः सासहानो अवातिरः। शासस्तमिन्द्र मर्त्यमयज्युं शवसस्पते। महीममुष्णाः पृथिवीमिमा अपो मन्दसान इमा अपः ॥
स्वर रहित पद पाठविदुः। ते। अस्य। वीर्यस्य। पूरवः। पुरः। यत्। इन्द्र। शारदीः। अवऽअतिरः। ससहानः। अवऽअतिरः। शासः। तम्। इन्द्र। मर्त्यम्। अयज्युम्। शवसः। पते। महीम्। अमुष्णाः। पृथिवीम्। इमाः। अपः। मन्दसानः। इमाः। अपः ॥ १.१३१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 131; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः के किं कृत्वा किं कुर्युरित्याह ।
अन्वयः
हे इन्द्र यथा पूरवस्ते तवाऽस्य वीर्यस्य पुरः प्रभावं विदुस्तथाऽन्येऽपि जानन्तु। यद्यः सासहानो जन इमाः शारदीरपोऽवातिरस्तथा त्वमपि जानीह्यवातिरश्च। हे शवसस्पत इन्द्र यथा त्वं यमयज्युं मर्त्यं शासः। यो मन्दसानो महीं पृथिवीं प्राप्य इमा अपः प्राणिनः पीडयेत्तं त्वममुष्णा वयमपि च शिष्याम ॥ ४ ॥
पदार्थः
(विदुः) जानीयुः (ते) तव (अस्य) (वीर्यस्य) पराक्रमस्य (पूरवः) मनुष्याः (पुरः) पूर्वम् (यत्) यः (इन्द्र) सर्वेषां धर्त्ता (शारदीः) शरदः इमाः (अवातिरः) अवतरेत् (सासहानः) सहमानः (अवातिरः) अवतरेत् (शासः) शिष्याः (तम्) (इन्द्र) सर्वाभिरक्षक (मर्त्यम्) मनुष्यम् (अयज्युम्) अयजमानम् (शवसः) बलस्य (पते) स्वामिन् (महीम्) महतीम् (अमुष्णाः) मुष्णीयाः (पृथिवीम्) (इमाः) प्रजाः (अपः) जलानि (मन्दसानः) कामयमानः (इमाः) प्रजाः (अपः) प्राणा इव वर्त्तमानाः ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। य आप्तानां प्रभावं विदित्वा धर्ममाचरन्ति ते दुष्टान् शासितुं शक्नुवन्ति ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन क्या करके क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) सबके धारण करनेहारे ! जैसे (पूरवः) मनुष्य (ते) आपके (अस्य) इस (वीर्य्यस्य) पराक्रम के (पुरः) प्रथम प्रभाव को (विदुः) जानें वैसे और भी जानें और (यत्) जो (सासहानः) सहन करता हुआ जन (इमाः) इन प्रजा और (शारदीः) शरद ऋतुसम्बन्धी (अपः) जलों को (अवातिरः) प्रकट करे वैसे आप भी जानो और (अवातिरः) प्रकट करो, हे (शवसः) बल के (पते) स्वामी (इन्द्र) सबकी रक्षा करनेहारे ! जैसे आप जिस (अयज्युम्) यज्ञ (न) करनेहारे (मर्त्यम्) मनुष्य को (शासः) सिखाओ वा जो (मन्दसानः) कामना करता हुआ (महीम्) बड़ी (पृथिवीम्) पृथिवी को पाकर (इमाः) इन (अपः) प्राणों के समान वर्त्तमान प्रजाजनों को पीड़ा देवे (तम्) उसको आप (अमुष्णाः) चुराओ, छिपाओ और हम भी सिखावें ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो धर्मात्मा सज्जनों के प्रभाव को जानकर धर्माचरण करते हैं, वे दुष्टों को सिखला सकते हैं अर्थात् उनकी दुष्टता दूर होने को अच्छी शिक्षा दे सकते हैं ॥ ४ ॥
विषय
इन्द्र का पराक्रम
पदार्थ
१. (पूरवः) = अपना पालन व पूरण करनेवाले लोग हे (इन्द्र) = प्रभो! (ते) = आपके (अस्य वीर्यस्य) = इस पराक्रम का (विदुः) = ज्ञान रखते हैं (यत्) = कि आप (सासहानः) = शत्रुओं का प्रबल मर्षण [कुचलना] करते हुए (शारदीः पुरः) = हमारी शक्तियों को शीर्ण करनेवाली आसुरवृत्तियों को (अवातिरः) = विध्वस्त कर देते हैं, (अवातिरः) = अवश्य विध्वस्त कर देते हैं । काम की नगरी हमारी इन्द्रियों को, क्रोध नगरी मन की शान्ति को और लोभ-नगरी बुद्धि की सूक्ष्मता को समाप्त करनेवाली होती है । इस प्रकार ये पुरियाँ (शारदी) = शरत् की भाँति हमारी शक्तियों को शीर्ण करनेवाली हैं । प्रभु कृपा से ये पुरियाँ शीर्ण हो जाती हैं और हमें शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है । २. हे शवशस्पते (इन्द्र) = सब बलों के स्वामिन् शक्तिशाली प्रभो! आप (तम्) = उस (अययु मर्त्यम्) = अयज्ञशील पुरुष को (शासः) = निगृहीत करते हो, दण्डित करते हो । वस्तुतः यज्ञादि उत्तम कों में लगे रहकर ही हम काम आदि को जीत पाते हैं । ३.हे प्रभो! अपने पुत्रों की यज्ञशीलता से (मन्दसानः) = प्रसन्नता का अनुभव करते हुए आप (महीं पृथिवीम्) = इस महनीय पृथिवी को मत तथा (इमाः अपः) = इन जलों को (अमुष्णाः) = [Surpass] लाँघ जाते हो । आपकी महिमा को यह विशाल पृथिवी तथा अत्यन्त व्यापक रूप को धारण करनेवाले ये जल भी नहीं व्यास कर सकते । (इमाः अपः) = ये जल वस्तुतः आपकी महिमा से ही महत्त्व को धारण करते हैं । इनमें रसरूप से आप ही निवास करते हो । पृथिवी भी आपकी महिमा से महिमान्वित होती है । प्रभु ही हमारी शरीररूप पृथिवी व रेतः कणरूप जलों को शत्रुविध्वंस द्वारा महिमान्वित करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की महिमा को पृथिवी व जल व्याप्त नहीं कर सकते । उपासित हुए - हुए वे प्रभु ही हमसे आसुरवृत्तियों को दूर कर देते हैं ।
विषय
सूर्यवत् राजा का वर्णन ।
भावार्थ
( यत् ) जिस प्रकार सूर्य ( शारदीः पुरः अवातिरः ) शरत् काल में वायु मण्डल में पूर्ण होने वाली जल धाराओं को जब वर्षा रूप में नीचे बरसाता है तब दुनिया सूर्य के जलाकर्षण बल को जानती है उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) राजन् ! ( पूरवः ) तेरा पालन और तेरे राष्ट्र बल को पूर्ण करने वाले प्रजाजन ( ते अस्य वीर्यस्य ) तेरे इस प्रत्यक्ष दीखने वाले वीर्य, बल पराक्रम को ( विदुः ) जानें ( यत् ) जब तू, ( सासहानः ) सब शत्रुओं को पराजय करता हुआ उनकी ( शारदीः पुरः ) शरत् के समय अर्थात् युद्ध यात्रा काल के उपयोगी नगरियों को ( अव अतिरः ) नीचे गिरा देता है । हे ( शवसः पते ) बल के स्वामिन् ! तू ( तम् ) उस उस नाना प्रकार के ( अयज्युम् ) सन्धि द्वारा तुझसे न आ मिलने वाले तथा तुझे कर न देने वाले पुरुष को ( शासः ) अच्छी प्रकार शासित और दण्डित कर । जिस प्रकार सूर्य ( इमाः अपः मन्दसानः ) इन जलों और प्राणियों के प्राणों को ग्रहण करता हुआ ( महीम् पृथिवीम् अपः ) इस बड़ी पृथिवी और जलों तथा समस्त प्राणियों को अपने वश करता है उसी प्रकार हे ( राजन् ) तू भी ( इमाः अपः ) इन समस्त आप्त और प्राप्त प्रजाजनों को ( मन्दसानः ) प्रसन्न करता हुआ और स्वयं भी हृष्ट प्रसन्न होता हुआ ( महीम् पृथिवीम् ) बड़ी भारी विशाल पृथिवी और ( अपः ) जलों को तथा पृथिवी निवासी प्रजाजनों और प्राणि वर्गों को ( अमुष्णाः ) अपने वश कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेष ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १, २ निचृदत्यष्टिः । ४ विराडत्यष्टिः । ३, ५, ६, ७ भुरिगष्टिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे धर्मात्म्याचा प्रभाव जाणून धर्माचरण करतात ते दुष्टांना शिकवू शकतात. अर्थात, त्यांची दुष्टता नाहीशी होण्यासाठी चांगले शिक्षण देऊ शकतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of power and management, the people would know and realise your usual power and valour when you, bold and challenging, would overcome the autumnal and wintry problems of life and society, reclaim the habitations, control the rivers, and restore total civic normalcy after rains, when, O lord of law and power, you tame the man who is selfish, possessive, uncreative, uncooperative and unyajnic, and when, happy at heart and creating the pleasure and joy of life, you release the great earth, release these waters and relieve these creative and cooperative people.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (King or President of the Assembly or Council of ministers ), let all men know thy ancient power as good learned persons know it well. When O upholder of men, endowed with the power of endurance, thou destroyest the cities of the Rakshasas or wicked people, humiliating their defenders like the sun bringing down the waters in the autumn season. O Lord of strength, thou chastisest the man who does not perform Yajnas and other good acts. Thou takest away the right of rulership of the person who desiring wealth gives trouble to these living beings. May we also give such persons good teachings, so that they may refrain from doing such ignoble deeds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पूरवः) मनुष्या: (निघ० २.३ ) = Men. (मन्दसान:) कामयमानः = Desiring.(अपः) प्राणाः इव वर्तमाना: = Living beings. पूरव इति मनुष्यनाम (निघ० २.३ ) मदि-स्तुति मोद मद स्वप्न कान्तिगतिषु अत्र कान्तिः कामना ।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who always observe the rules of righteousness, knowing the great influence and glory of the absolutely truthful persons in mind, word and deed, are able to chastise and rule over the wicked persons.
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